बिहार में चुनाव आयोग द्वारा किए जा रहे मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण को लेकर विपक्षी दलों ने जो राजनीतिक तूफ़ान खड़ा किया है, वह लोकतंत्र की रक्षा कम और राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई ज़्यादा प्रतीत होती है। जिस कार्य को एक नियमित प्रशासनिक स्वच्छता अभियान के रूप में देखा जाना चाहिए था, उसे षड्यंत्र का रंग देना दरअसल एक पूर्व-निर्धारित पराजय का बहाना है।
यह कोई रहस्य नहीं कि वर्षों से बिहार की मतदाता सूची में मृतकों, पलायनकर्ताओं और दोहरी प्रविष्टियों की भरमार रही है। क्या एक ज़िम्मेदार विपक्ष का यह कर्तव्य नहीं होना चाहिए कि वह ऐसी सफाई प्रक्रिया का स्वागत करे? लेकिन यहाँ सच्चाई से अधिक राजनीतिक आकांक्षाएं आहत हो रही हैं। मानो साफ़-सुथरी मतदाता सूची किसी दल विशेष की जीत का प्रतीक बन गई हो।
वास्तव में यह विरोध एक नए तरह का विमर्श रचने की कोशिश है—जहाँ हर संस्थान को संदेह के घेरे में लाकर अपनी हार को वैध ठहराया जा सके। आज यह ईवीएम है, कल चुनाव आयोग, और परसों शायद खुद मतदाता भी ‘संदिग्ध’ घोषित कर दिए जाएँ। यह वह राजनीतिक मनोवृति है, जो लोकतंत्र के औजारों को कथानक निर्माण के हथियारों में बदल देती है।
इतिहास गवाह है कि बैलेट पेपर के ज़माने में चुनाव किस हद तक हिंसा, डर और बूथ कैप्चरिंग की गिरफ्त में थे। उन चुनावों में ‘मतदान’ नहीं होता था, ‘मत-हथियान’ होता था। क्या हम उस युग में लौटना चाहते हैं सिर्फ इसलिए कि तकनीक ने सत्ता समीकरण बदल दिए?
बिहार का मामला एक विशेष कारण से और भी ज़रूरी हो जाता है—यह एक ऐसा राज्य है जहाँ बड़ी संख्या में मज़दूरों और छात्रों का पलायन होता है। क्या यह बेहतर नहीं कि मतदाता सूची ज़मीनी सच्चाई से मेल खाए, न कि काग़ज़ी भ्रम बनाए रखे? जो लोग वर्षों से बिहार में नहीं हैं, उनके नाम को वोटिंग लिस्ट से हटाना अपराध नहीं, लोकतांत्रिक शुद्धिकरण है।
बेशक, किसी भी व्यापक संशोधन में त्रुटियाँ संभव हैं—लेकिन उसके लिए अपील और सुधार की व्यवस्थाएँ बनी हुई हैं। कुछ असुविधाओं के आधार पर पूरी प्रक्रिया को बदनाम करना, केवल राजनीतिक आशंकाओं की गूँज है, ना कि लोकतांत्रिक चिंता।
आख़िर में सवाल यह नहीं कि कौन हारेगा और कौन जीतेगा। असली सवाल यह है कि क्या हम एक ऐसे लोकतंत्र के पक्ष में खड़े हैं, जहाँ मतदाता सूची विश्वसनीय हो, या फिर एक ऐसे भ्रमलोक के जिसमें चुनावों से पहले ही पराजय की पटकथा लिखी जा चुकी हो?
बिहार की यह प्रक्रिया अगर पारदर्शी और निष्पक्ष है, तो इसे राष्ट्रीय मॉडल की तरह देखा जाना चाहिए—विशेषकर उन राज्यों में जहाँ घुसपैठ, फर्जी मतदाता और पहचान की गड़बड़ियों ने लंबे समय से लोकतंत्र की नींव को हिला रखा है।
मतदाता सूची को साफ़ करना लोकतंत्र को मज़बूत करता है। उसका विरोध करना, सिर्फ इसलिए कि चुनावी गणित प्रभावित हो सकता है—यह सत्ता की भूख है, लोकतंत्र की नहीं।