हाल ही में संपन्न हुए शीतकालीन सत्र में संसद का माहौल लोकतांत्रिक मूल्यों के बजाय हंगामे और अव्यवस्था का प्रतीक बन गया। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही ने इस प्रतिष्ठित संस्थान को व्यक्तिगत हमलों और नाटकीयता का अखाड़ा बना दिया, जिससे नागरिकों में निराशा का माहौल है।
यह सत्र रोजाना स्थगन, शोर-शराबे, और अपरिपक्व आचरण से प्रभावित रहा। राहुल गांधी का अडानी-मोदी मामले पर लगातार जोर देना वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने का काम करता दिखा, जबकि बीजेपी ने इसके जवाब में गांधी परिवार पर विवादित व्यक्तियों से संबंधों के आरोप लगाए। यह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे अर्थव्यवस्था, सीमा विवाद, और सामाजिक न्याय, पर आवश्यक चर्चा को बाधित कर रही है।
विपक्षी खेमे में भी असहमति साफ दिखी। ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जैसे नेता कांग्रेस की अवरोधक रणनीति से खुद को अलग करते नजर आए, जिससे INDI गठबंधन की एकता की कमजोरी उजागर हुई। वहीं, बीजेपी की आक्रामक प्रतिक्रिया ने स्थिति को और गंभीर बना दिया, जिससे शासन से जुड़े वास्तविक मुद्दों पर ध्यान भटक गया।
संसद को इस अव्यवस्था से ऊपर उठना चाहिए। दोनों पक्षों पर यह जिम्मेदारी है कि वे रचनात्मक बहस करें और लोकतंत्र की गरिमा बनाए रखें। भारत के नागरिक अपने नेताओं से इससे कहीं बेहतर की उम्मीद रखते हैं।