Sunday, October 5, 2025

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शुल्कों का तूफ़ान और भारत-अमेरिका संबंध — अनिश्चितता की आँधी में नैया

भारत-अमेरिका कूटनीति के इतिहास में शायद ही कोई घटना इतनी तेजी से आपसी विश्वास को झकझोर पाई हो, जितनी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का अचानक लगाया गया शुल्क प्रहार। भारतीय वस्तुओं पर आयात कर दोगुना करना केवल आर्थिक सौदेबाज़ी नहीं, बल्कि कूटनीतिक आक्रामकता का संकेत है—कुछ वैसा ही जैसा 1971 में निक्सन और इंदिरा गांधी के बीच का टकराव। इतिहास हूबहू नहीं दोहराता, लेकिन उसकी गूंज अक्सर चुभने वाली होती है।

यह फैसला बिजली की तरह गिरा—अमेरिका को जाने वाले आधे से अधिक भारतीय निर्यात पर 50% शुल्क। नतीजा, महीनों से चल रही व्यापार वार्ताएं ठंडे बस्ते में और कारोबारी माहौल में अनिश्चितता का धुंधलका। भारत सरकार ने इसे “अनुचित” करार दिया, लेकिन ऐसे एकतरफ़ा फैसलों के सामने केवल बयानबाज़ी असरदार हथियार नहीं होती। दोनों देशों के उद्योग जगत को डर है कि इतने ऊँचे कर से अमेरिकी बाज़ार में भारतीय उत्पाद लगभग ग़ायब हो जाएंगे, जबकि प्रतिस्पर्धी देशों को इसका सीधा लाभ मिलेगा।

हालाँकि, मुश्किलें अक्सर नई राहें दिखाती हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने जिस चतुराई से सस्ती रूसी कच्चे तेल की खरीद को आर्थिक अवसर में बदला, वह यादगार है। जामनगर की रिफ़ाइनरी इसका जीता-जागता उदाहरण है—जहाँ सस्ता तेल मूल्यवर्धित डीज़ल में बदलकर दुनिया भर को बेचा गया। पश्चिमी आलोचकों ने भारत पर पुतिन की मदद का आरोप लगाया, लेकिन उन्होंने यह conveniently भुला दिया कि उनके अपने परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में रूस से मुनाफ़ा कमाने के रिश्ते अब भी कायम हैं।

ट्रम्प का रिकॉर्ड अचानक फैसलों और चुभते बयानों से भरा है—हाल के दिनों में प्रतिद्वंद्वी सैन्य नेतृत्व के साथ सार्वजनिक मेलजोल ने भी उनके इरादों पर सवाल खड़े किए हैं। भारत अब एक मोड़ पर खड़ा है—क्या पलटवार किया जाए, जिससे टकराव बढ़ सकता है, या फिर रणनीतिक धैर्य अपनाया जाए, ताकि दीर्घकालिक हित सुरक्षित रहें।

ऊर्जा की भू-राजनीति भी समीकरण में शामिल है—रूसी तेल से बने उत्पादों पर यूरोपीय संघ की संभावित पाबंदियाँ भारत के तेल संतुलन को हिला सकती हैं। ऐसे में जल्दबाज़ी में कोई कठोर कदम उठाना, विरोधियों की योजना में फंसने जैसा होगा।

भारत की परंपरागत कूटनीतिक संतुलन नीति को कभी भी कमज़ोरी नहीं समझना चाहिए। अशांत समय में संयम ही असली ताकत है। तूफ़ान को बहने दें, बादल गरजें—रास्ता तय करने का काम नारेबाज़ों का नहीं, बल्कि राजनयिकों का है। राष्ट्रीय हित ही दिशा-सूचक होना चाहिए। आहत अहंकार को थोड़ी देर इंतज़ार करने दें—क्योंकि समय के साथ, स्थिर हाथ ही सबसे बड़ी जीत दर्ज करता है।

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