अमेरिकी राजनीति हमेशा से नाटकीय रही है, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के लिए यह महज़ राजनीति नहीं, बल्कि उनका निजी मंच है। उनके लिए हक़ीक़त और उनकी अपनी बनाई कहानी में कोई फर्क़ नहीं है — दोनों एक ही चीज़ हैं, बस वे तय करते हैं कि कब कौन सा रूप लेना है। आज उनका सबसे बड़ा किरदार है “विश्व शांति दूत” बनने का, और वे मान चुके हैं कि यह सम्मान उन्हें किसी वार्ता-तालिका से नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व से मिलेगा।
उनकी ताज़ा पटकथा में अगस्त के अंत से पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की को एक साथ बैठाकर हाथ मिलवाने का दृश्य शामिल है। तस्वीर खिंच जाएगी, और फिर उसे अक्टूबर में घोषित होने वाले नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भेजा जाएगा — यही उनका सपना है। यह तथ्य कि इनमें से एक नेता परमाणु शस्त्रों का मालिक है, ट्रंप के मुताबिक, इस कहानी को और “ऐतिहासिक” बनाता है। मगर पर्दे के पीछे जानकार मानते हैं कि इस नाटक का मंच अभी तैयार नहीं है।
उनके “कलाकार दल” में भी अजीब-सा मिश्रण है। विदेश मंत्री मार्को रुबियो, जो अक्सर बैकस्टेज से संवाद बोलते नज़र आते हैं; नाटो के मार्क रुट्टे, जिनका उत्साह एक चुनावी स्वयंसेवक जैसा लगता है; और कॉकस क्षेत्र के नेता, जैसे अज़रबैजान के इल्हाम अलीयेव और आर्मेनिया के पाशिनयान, जो इस पूरे आयोजन को अंतरराष्ट्रीय रंग देने के लिए लाए गए हैं। भारत इस समय दर्शक की भूमिका में है, लेकिन ट्रंप के लिए अगर रूस का “अलगाव” खत्म हो जाए, तो भारत पर लगाए गए व्यापारिक शुल्क भी हटाए जा सकते हैं — यह वही सौदेबाज़ी है जिसमें वे माहिर हैं।
एक और चर्चा है — कि ट्रंप की भारत से नाराज़गी का कारण शायद यह है कि भारत ने उनके नोबेल अभियान का खुलकर समर्थन नहीं किया। मनोवैज्ञानिक इसे उनके व्यक्तित्व के पैटर्न से जोड़ते हैं, जहां व्यक्तिगत विश्वास को वे निर्विवाद सच मान लेते हैं, और विरोध को सिर्फ़ अपनी “जीत” का रास्ता बदलने वाला मोड़ समझते हैं।
द आर्ट ऑफ द डील के सह-लेखक टोनी श्वार्ट्ज याद करते हैं कि कैसे ट्रंप हर नाकामी को सफलता में बदलने की कहानी बना देते थे। उनके लिए तथ्य लचीले हैं, असल मुद्रा है लोगों की धारणा। यही वजह है कि भारत–पाकिस्तान के बीच कथित मध्यस्थता करने का उनका दावा — जिसके कोई सरकारी सबूत नहीं हैं — बार-बार दोहराए जाने से उनकी निजी “सत्य” सूची में दर्ज हो गया है।
यही कारण है कि 15 अगस्त का दिन, जो भारत के लिए स्वतंत्रता का पर्व है, इस समय ट्रंप की स्क्रिप्ट में भी एक अजीब मायने रखता है। खबर है कि इसी समय वे अलास्का में पुतिन से मुलाक़ात का मंचन कर सकते हैं। ट्रंप के लिए हर दिन एक प्रदर्शन है, और हर दर्शक मंडली एक संभावित नोबेल जूरी।
इतिहास तय करेगा कि उनकी “शांति स्थापित करने” की कहानियों में कितनी सच्चाई थी। लेकिन एक बात अभी साफ़ है — ट्रंप की राजनीतिक दुनिया में वास्तविकता खोजी नहीं जाती, उसे गढ़ा जाता है। बयान पर बयान, सुर्ख़ी पर सुर्ख़ी, वे इसे ऐसे बनाते हैं जैसे अपनी ऊँची-चमकीली इमारतें — दिखने में भव्य, लेकिन भीतर से उतनी ही अविश्वसनीय जितना कि उसका सपना।