मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का यह कहना कि “किसान का स्वास्थ्य और समृद्धि ही राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता है” कोई सामान्य राजनीतिक बयान नहीं माना जा सकता। यह घोषणा ऐसे समय में आई है जब धान के खेतों में एक अदृश्य, लेकिन खतरनाक बीमारी मेलियोइडोसिस मंडरा रही है, जो न केवल किसानों की आजीविका बल्कि उनके जीवन तक को खतरे में डाल रही है। AIIMS भोपाल की चिंताजनक रिपोर्टों के बाद मुख्यमंत्री द्वारा इस संकट से निपटने का संकल्प निश्चित ही प्रशंसा और ठोस क्रियान्वयन दोनों का हकदार है।
सूक्ष्म लेकिन घातक दुश्मन
यह समस्या टिड्डी दल, बाढ़ या दामों के उतार-चढ़ाव जैसी जानी-पहचानी नहीं है। दुश्मन इस बार सूक्ष्मदर्शी के नीचे दिखने वाला है Burkholderia pseudomallei नामक जीवाणु, जो पानी से भरी मिट्टी में पनपता है, जहाँ धान की फसल लहलहाती है। विडंबना यह है कि जो खेत अन्न देने का वादा करते हैं, वही किसान के लिए बीमारी का घर बन जाते हैं। और यह रोग इतना छलिया है कि अक्सर तपेदिक (टीबी) की तरह दिखता है, जिससे इलाज में देर हो जाती है। बीस से अधिक जिलों में इसके मामले सामने आना इस बात का प्रमाण है कि यह कोई अपवाद नहीं, बल्कि उभरता हुआ सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है।
किसान पर दोहरी मार
मेलियोइडोसिस सबसे अधिक उन किसानों को निशाना बनाता है, जो दिन-रात गीली मिट्टी और दूषित पानी में खड़े रहते हैं। पहले से ही आर्थिक असुरक्षा झेल रहे किसान इस occupational hazard से जूझते हैं। ऐसे में यदि राज्य चुप्पी साध ले तो यह उनके साथ अन्याय ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के साथ विश्वासघात भी होगा।
मुख्यमंत्री ने स्वास्थ्य और कृषि विभागों को संयुक्त निगरानी अभियान, जागरूकता कार्यक्रम और संदिग्ध मामलों की जांच सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है। AIIMS द्वारा मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों के लिए प्रशिक्षण सत्र आयोजित करना सराहनीय कदम है। लेकिन कार्यशालाएं और टास्क फोर्स केवल औपचारिकता न बन जाएं, यह सुनिश्चित करना होगा। ज़रूरत है लगातार स्क्रीनिंग शिविरों की, ज़िला अस्पतालों में विशेष जांच सुविधा की और किसानों के लिए सरल, व्यवहारिक सलाह की।
एक गहरी सीख
यह बीमारी याद दिलाती है कि कृषि और स्वास्थ्य एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। किसानों की भलाई पर चर्चा अक्सर कर्ज़ माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य तक सीमित रहती है। लेकिन अगर किसान ही बीमारी से ग्रस्त हो जाए तो उपज का क्या अर्थ? असली समृद्धि केवल पैदावार में नहीं बल्कि स्वस्थ शरीर और मजबूत समुदायों में निहित है।
जलवायु परिवर्तन, सिंचाई की पद्धतियाँ और भूमि उपयोग के बदलते पैटर्न ऐसे नए रोगों के लिए ज़मीन तैयार कर रहे हैं। भारत इन बीमारियों को चिकित्सा पुस्तकों की दुर्लभ प्रविष्टि मानकर नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। ज़रूरी है दूरदर्शिता कृषि, पारिस्थितिकी और सार्वजनिक स्वास्थ्य का एकीकृत दृष्टिकोण।
समाज और नीति का दायित्व
किसान को हमेशा राष्ट्र की रीढ़ कहा गया है। आज वही रीढ़ एक अदृश्य रोग से कमजोर होने की कगार पर है। नीति निर्धारकों को महज़ घोषणाओं से आगे बढ़कर ठोस संसाधन और त्वरित कदम उठाने होंगे। इस लड़ाई में केवल चिकित्सा सतर्कता ही नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदनशीलता, प्रशासनिक इच्छाशक्ति और गाँव-गाँव तक पहुँचने वाला जनसंचार भी जरूरी है।
धान के खेत में जब किसान पानी में घुटनों तक डूबकर मेहनत करता है, तो उसे अपनी ही तबाही की ज़मीन पर खड़े होने का भय नहीं होना चाहिए। यह राज्य का दायित्व है दया के कारण नहीं बल्कि कर्तव्य के तहत कि किसान की बोई हुई फसल उसे जीवन दे, बीमारी नहीं।