पूर्व सांसद और एक सशक्त राजनीतिक वंशज प्रज्वल रेवन्ना को घरेलू कर्मचारियों के साथ बार-बार किए गए जघन्य बलात्कार के लिए सुनाई गई आजन्म कारावास की सज़ा, भारत की न्यायिक चेतना में एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है। यह निर्णय इस बात का संकेत है कि विरासत और विशेषाधिकार की दीवारें, यदि न्याय का उपकरण निष्कलंक इच्छाशक्ति से संचालित हो, तो अजेय नहीं हैं।
यह निर्णय उस परिवेश में आया है जहाँ प्रभावशाली वर्ग अक्सर विधिक प्रक्रिया को भ्रम, देरी और तकनीकी पेचीदगियों के ज़रिए अनिश्चित काल तक टालने में सफल रहता है। लेकिन इस मुकदमे की न्यायिक यात्रा ने इन सभी कुटिल प्रयासों को नकारते हुए, फॉरेंसिक साक्ष्य, डीएनए परीक्षण और घटनास्थल के वीडियो प्रमाण के माध्यम से अपराध को निर्विवादित रूप से सिद्ध किया। यह केवल एक कानूनी उपलब्धि नहीं, बल्कि सुनियोजित और निर्भीक अभियोजन कौशल का उद्घोष भी है।
रेवन्ना द्वारा अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का हवाला देना—बीमार दादा और राजनैतिक रूप से सक्रिय माता-पिता की देखभाल की दुहाई—न केवल एक विकृत भावनात्मक युक्ति प्रतीत होती है, बल्कि यह न्याय की तटस्थता को भावनात्मक करुणा से प्रभावित करने का एक अशोभनीय प्रयास भी है। न्यायाधीश संतोष गजानन भट द्वारा इस मुकदमे को “डेविड और गोलियत” की संज्ञा देना, उस दुर्लभ किन्तु आवश्यक साहस का प्रतीक है जो व्यवस्था के ताक़तवर वर्ग को न्याय के कठघरे में खड़ा करने के लिए आवश्यक होता है।
हालांकि, इस निर्णय की गौरवगाथा को एक कड़वा सत्य संतुलित करता है—कि ऐसे अनेक पीड़ित, राजनीतिक प्रतिशोध और सामाजिक कलंक के भय से चुप्पी साधे रहते हैं। लगभग 70 संभावित पीड़ितों की बात सामने आने के बावजूद, केवल कुछ ही महिलाएं न्याय के द्वार तक पहुँच सकीं। यह हमारे गवाह-संरक्षण और पीड़ित-सहायता प्रणाली की गंभीर विफलता का प्रमाण है और इसमें त्वरित सुधार की आवश्यकता अपरिहार्य है।
जब हम इस निर्णय को बिलकिस बानो, आसाराम और गुरमीत राम रहीम जैसे मामलों की पृष्ठभूमि में रखते हैं—जहाँ न्यायिक निर्णयों को दया याचिकाओं और असमय रिहाईयों ने कमज़ोर किया—तो रेवन्ना का यह निर्णय कानून की समानता की सख़्त आवश्यकता की ओर इशारा करता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह स्पष्ट कथन कि न्यायिक निर्णयों को कार्यपालिका की दखल से अप्रभावित रखा जाना चाहिए, आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या यह निर्णय, अपील की जटिल प्रक्रिया में टिक पाएगा? क्या यह वाकई सत्ता और जवाबदेही के बीच एक नई रेखा खींचेगा? निर्णय की घोषणा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, उस निर्णय को सत्ता के प्रलोभनों और विधिक पैंतरों के बावजूद अक्षुण्ण बनाए रखना।
यदि प्रज्वल रेवन्ना को दी गई आजीवन कारावास की यह सज़ा, सत्ता और विशेषाधिकार की परतों को चीर कर न्याय का दीपस्तंभ बन सके, तो यह केवल एक दोषसिद्धि नहीं, बल्कि भारतीय न्याय प्रणाली में गहन परिवर्तन की संभावनाओं का प्रारंभ सिद्ध होगी।