15 अगस्त 2025 की सुबह, दिल्ली के आकाश में तिरंगा लहराएगा, लाल किले की प्राचीर पर प्रधानमंत्री का संबोधन गूंजेगा, और सामने हरे लॉन पर बैठी होंगी सैकड़ों खास हस्तियां। उन्हीं में से एक होंगी खिलेश्वरी देवांगन, जिन्हें उनके गांव गबदी (जिला बलौद, छत्तीसगढ़) में लोग स्नेह से “लखपति दीदी” कहते हैं।
वह न तो राजनीति से आई हैं, न बड़े कारोबारी घराने से। उनकी पहचान उस मिट्टी से बनी है, जिसमें मेहनत का पसीना और बदलाव का सपना एक साथ पनपा है।
संघर्ष की जड़ों से उगता आत्मविश्वास
खिलेश्वरी का जन्म एक ऐसे घर में हुआ जहां आमदनी सिर्फ खेतों में मजदूरी से आती थी। रोज़ की रोटी तय नहीं होती थी। लेकिन उनकी जिंदगी का रुख तब बदला जब उन्होंने दीनदयाल अंत्योदय योजना – राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (बिहान) से जुड़ने का फैसला किया।
यह योजना कई लोगों के लिए सुरक्षा कवच है, लेकिन खिलेश्वरी के लिए यह एक उड़ान का जरिया बन गई।
मुर्गीपालन से मछलीपालन तक
शुरुआत छोटी थी — कुछ मुर्गियां और एक छोटी सी किराने की दुकान। लेकिन उन्होंने यहीं रुकना मंज़ूर नहीं किया। धीरे-धीरे उन्होंने मछलीपालन, सजावटी सामान की दुकान और कई छोटे कारोबार शुरू किए।
सरकारी कम्युनिटी इन्वेस्टमेंट फंड और अपनी मेहनत की कमाई को उन्होंने खर्च नहीं, बल्कि निवेश बनाया — मुर्गीशेड, फीडर, स्टॉक और ऐसे साधनों में जो सालों तक आय देते रहें। नतीजा यह है कि आज उनकी सालाना आमदनी करीब ₹4.6 लाख पहुंच चुकी है, जो कभी उनके लिए सपने से कम नहीं थी।
सिर्फ खुद नहीं, गांव को भी बदला
खिलेश्वरी की असली ताकत सिर्फ उनकी कमाई नहीं है। फाइनेंशियल लिटरेसी कम्युनिटी रिसोर्स पर्सन के रूप में उन्होंने अपने इलाके के स्वयं सहायता समूहों के लिए बैंकों से ₹2 करोड़ से ज्यादा का कर्ज दिलवाया। जहां कभी बैंक का नाम भी दूर की बात लगता था, वहां अब महिलाएं आत्मविश्वास से लोन लेकर कारोबार चला रही हैं।
वह मानती हैं कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की योजनाओं ने उन्हें संसाधन और साहस दिया। लेकिन सच्चाई यह भी है कि योजनाएं तभी असर दिखाती हैं, जब कोई उन्हें पूरे विश्वास और लगन से अपनाता है।
गांव की आवाज़, राष्ट्र के मंच पर
इस स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले में उनकी मौजूदगी सिर्फ सम्मान नहीं, बल्कि एक संदेश है — कि भारत की असली आर्थिक क्रांति गांवों की महिलाओं के हाथों में पल रही है।
जब प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करेंगे, खिलेश्वरी चुपचाप वहां बैठी होंगी, लेकिन उनकी कहानी अपने आप बोल उठेगी: बदलाव के बीज खेतों में ही नहीं, हौसलों में भी बोए जाते हैं।
आज जब सुर्खियां चमक-दमक से भरी होती हैं, खिलेश्वरी देवांगन की यात्रा हमें याद दिलाती है कि सबसे गहरे बदलाव अक्सर कैमरे से दूर, गांव की पगडंडियों पर और छोटे-छोटे फैसलों में पनपते हैं — फैसले जो किसी एक जिंदगी को नहीं, पूरे समाज को दिशा दे सकते हैं।