मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का हालिया आह्वान कि गौशालाएँ आत्मनिर्भर बनें, केवल परित्यक्त गौवंश की देखभाल की चिंता नहीं है। यह संदेश ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को स्थानीय संसाधनों, सांस्कृतिक विरासत और आधुनिक नवाचार से जोड़कर नया जीवन देने का आमंत्रण है।
आज तक गौशालाएँ प्रायः दान और धर्मादे की परंपरा से संचालित होती रही हैं। लेकिन यदि गौमूत्र, गोबर और गौ-उत्पादों को “अपशिष्ट” न मानकर संसाधन के रूप में पहचाना जाए तो वही गौशाला छोटे-छोटे कृषि-औद्योगिक केंद्र बन सकती है। बायोगैस संयंत्र, जैविक खाद, औषधीय उत्पाद और यहाँ तक कि सौर ऊर्जा का उत्पादन गौशालाओं की नई पहचान गढ़ सकता है। मुख्यमंत्री का सुझाव कि गौशालाओं की खाली ज़मीन पर सोलर प्लांट स्थापित हों, केवल कल्पना नहीं बल्कि हरित अर्थव्यवस्था की दिशा में व्यावहारिक कदम है।
स्वदेशी नस्लों का संबल
गिर, साहिवाल, मालवी और नागौरी जैसी भारतीय गायों की नस्लें केवल परंपरा की याद नहीं, बल्कि आनुवंशिक मजबूती और जलवायु अनुकूलन की सजीव मिसाल हैं। यदि दुग्ध क्रांति को स्थायी आधार देना है तो विदेशी नस्लों की अंधी दौड़ छोड़कर इन स्थानीय नस्लों के संवर्धन पर बल देना होगा। मध्यप्रदेश के पास आदिवासी और शुष्क क्षेत्रों में इन्हें प्रोत्साहित कर पशुधन को ग्रामीण समृद्धि का आधार बनाने का ऐतिहासिक अवसर है।
दान से परे प्रबंधन
गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाना केवल धार्मिक दान या ट्रस्टों पर निर्भर रहकर संभव नहीं। यह आवश्यक है कि इन्हें बाज़ारोन्मुखी संस्थाओं के रूप में विकसित किया जाए। दूध प्रसंस्करण सहकारी समितियाँ, जैविक खाद का विक्रय, गोमूत्र आधारित औषधियों का निर्माण और ग्रामीण स्टार्टअप्स—ऐसे प्रयोग गौशालाओं को “बोझ” से “संपदा” में बदल सकते हैं।
इसके लिए राज्य को भी अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी। पशुचिकित्सकों की कमी दूर करना, कृषि-पशुपालन-ऊर्जा क्षेत्रों के बीच तालमेल बनाना और ग्रामीण उद्यमिता को बढ़ावा देना अनिवार्य है। तभी यह मॉडल व्यवहार्य सिद्ध होगा।
आश्रय से प्रतीक तक
गौशाला सदियों से धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था का केंद्र रही है। लेकिन इसे केवल श्रद्धा तक सीमित करना इसके वास्तविक सामर्थ्य को नकारना है। आने वाली आत्मनिर्भर गौशाला न केवल गोवंश की रक्षा का प्रतीक होगी बल्कि परिपत्र अर्थव्यवस्था और ग्रामीण विकास की प्रेरक मिसाल भी।
निष्कर्ष
यदि मध्यप्रदेश इस दिशा में सफल होता है तो यह केवल गायों की सुरक्षा भर नहीं होगी। यह इस बात का सबूत होगा कि ग्रामीण भारत की समृद्धि की राह परंपरा को छोड़ने में नहीं, बल्कि उसे विज्ञान, प्रबंधन और सतत विकास की भाषा में रूपांतरित करने में है।