Thursday, September 11, 2025

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गरिमा का वादा

जयपुर फुट और जीवन का नया अध्याय

कभी-कभी शासन अपनी नीतियों और आँकड़ों की औपचारिकता से आगे बढ़कर अपने असली दायित्व को उजागर करता है—वह दायित्व, जिसमें निराशा में डूबे जीवन को फिर से गरिमा दी जाती है और असहायता को आत्मनिर्भरता में बदला जाता है। बस्तर के आदावल गाँव में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की उपस्थिति में विकलांगजन को जयपुर फुट और सहायक उपकरण बाँटे गए, तो यह सिर्फ़ एक सरकारी कार्यक्रम नहीं रहा, बल्कि मानवीय संवेदना का उत्सव बन गया।

छठवीं कक्षा की छात्रा पुलम बघेल, जिसने बचपन में दुर्घटना के कारण अपना पैर खो दिया था, अब नए आत्मविश्वास के साथ चल रही है। बिजली के झटके से अपनी टाँग गंवा चुकी कलावती मंडावी और उसके संघर्षरत परिवार के लिए भी यह क्षण सिर्फ़ कृत्रिम अंग पाने का नहीं, बल्कि उम्मीद लौटने का था। जन्म से ही दिव्यांग छोटे देवा के पिता के लिए यह सहारा किसी दान की तरह नहीं, बल्कि उसके बचपन को लौटाने वाला पुल साबित हुआ।

इन कहानियों में तकनीक की धातु और फाइबर से कहीं अधिक चमकती है गरिमा की रोशनी। जयपुर फुट महज़ एक तकनीकी आविष्कार नहीं, बल्कि यह भारत की उस प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जो सबसे कमजोर को भी बराबरी के अवसर देने की राह दिखाता है। सामाजिक न्याय का सच यही है कि वह भाषणों में नहीं, बल्कि ऐसे ठोस उपकरणों से साकार होता है।

एक कृत्रिम पैर किसी दिव्यांग को केवल चलने की सुविधा नहीं देता, बल्कि पढ़ाई, रोज़गार और सामुदायिक जीवन में शामिल होने की ताकत देता है। यह अलगाव की चुप्पी को तोड़ता है और सहभागिता का संगीत रचता है। यही वह बिंदु है जहाँ कल्याण योजना सामाजिक अनुबंध में बदल जाती है।

लेकिन यह भी याद रखना होगा कि ऐसी पहलें केवल आयोजन भर न रह जाएँ। शासन की असली परीक्षा निरंतरता है—जब पहुँच और पुनर्वास हर दिव्यांग का अधिकार बने, न कि किसी विशेष अवसर का संयोग।

बस्तर की लाल मिट्टी पर जब नए कदमों ने अपनी पहली चाल भरी, तो वह दृश्य एक प्रतीक बन गया: एक न्यायपूर्ण समाज वही है, जो अपने सबसे कमजोर को असहायता के अंधेरे में नहीं छोड़ता। जयपुर फुट इसीलिए केवल चलने का साधन नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र में गरिमा की निरंतर खोज का रूपक भी है।

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