वैश्विक राजनीति के मौजूदा तूफ़ान में भारत एक ऐसे बिंदु पर खड़ा है जहाँ उसके आर्थिक हित, ऊर्जा सुरक्षा, और रणनीतिक साझेदारियों का संतुलन एक बेहद नाज़ुक डोर पर टिका है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय निर्यात पर 25% दंडात्मक टैरिफ लगाने का ऐलान, रूस से कच्चे तेल की निरंतर खरीद के विरोध में, इस संतुलन को और चुनौतीपूर्ण बना देता है।
पृष्ठभूमि और दबाव
यह निर्णय ऐसे समय आया है जब भारत-अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर बातचीत पहले से ही अटकी हुई है, और कई पुराने व्यापारिक मतभेद खुले घाव की तरह मौजूद हैं। दंडात्मक टैरिफ का खतरा न केवल भारत के कपड़ा और विनिर्माण निर्यात को प्रभावित कर रहा है, बल्कि अमेरिकी खरीदारों को अन्य देशों की ओर मोड़ भी रहा है, जिन्हें अमेरिका ने अपेक्षाकृत सहज व्यापार शर्तें दी हैं।
भारत ने इसका जवाब प्रतिशोधी कदमों से नहीं, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक बयानबाज़ी से दिया—यूरोप के रूस से ऊर्जा आयात के दोहरे मानदंडों पर सवाल उठाए, और अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि बताते हुए रुख स्पष्ट किया।
रूसी तेल की भूमिका
यूक्रेन संकट के बाद, जब यूरोप ने रूसी तेल पर प्रतिबंध लगाया, भारत ने डिस्काउंटेड यूरल क्रूड का आयात बढ़ाकर अपने तेल बास्केट में रूस की हिस्सेदारी 35–40% तक पहुँचा दी। इससे अरबों डॉलर की बचत हुई और ऊर्जा आपूर्ति स्थिर रही। लेकिन पश्चिमी देशों की नज़र में यह रणनीति रूस को आर्थिक सहारा देने जैसी है।
रूस भारत का दशकों पुराना रक्षा और ऊर्जा साझेदार है। अचानक इस रिश्ते को छोड़ना न केवल रणनीतिक नुकसान देगा, बल्कि भारत की विदेश नीति की स्वतंत्रता पर भी प्रश्नचिह्न लगा सकता है—जैसा 2018 में ईरान और वेनेज़ुएला से आयात बंद करने के बाद हुआ था।
अमेरिकी रिश्तों की अहमियत
दूसरी ओर, अमेरिका भारत का प्रमुख व्यापारिक, तकनीकी और रक्षा साझेदार है, और इंडो-पैसिफिक व क्वाड जैसी बहुपक्षीय व्यवस्थाओं में दोनों की साझेदारी अहम है। अगर यह टैरिफ लंबे समय तक लागू रहा, तो व्यापार के साथ-साथ पिछले 25 साल में बनी आपसी भरोसे की नींव भी हिल सकती है।
आगे का रास्ता
प्रधानमंत्री मोदी ने साफ कहा है कि किसानों और उद्योगपतियों के हितों की रक्षा के लिए कोई भी कीमत चुकाई जाएगी। व्हाइट हाउस ने संकेत दिया है कि यदि यूक्रेन युद्ध का समाधान निकलता है तो टैरिफ हट सकते हैं, अन्यथा कोई आखिरी समय का व्यापार समझौता ही हालात को सुधार सकता है।
निष्कर्ष
भारत को इस समय ऐसी नीति अपनानी होगी जो सिद्धांत और व्यावहारिकता, दोनों का संतुलन साधे। यह केवल अमेरिका या रूस का चुनाव नहीं है—यह अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को कायम रखते हुए, वैश्विक मंच पर एक संतुलित शक्ति बनने की परीक्षा है। सही संतुलन बनाने में विफलता, न केवल तत्काल आर्थिक नुकसान बल्कि दीर्घकालिक कूटनीतिक असर भी डाल सकती है।