रायसेन ज़िले के महलपुर पाथा गाँव में स्थित प्राचीन राधा-कृष्ण मंदिर केवल पत्थरों का ढांचा नहीं है, बल्कि मध्य भारत की सांस्कृतिक परंपरा का जीवंत प्रतीक है। यहीं पर मुख्यमंत्री मोहन यादव ने स्वयं को केवल राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि “सभ्यता के उत्तराधिकारी” के रूप में प्रस्तुत किया। उनका वादा था कि इस सैकड़ों साल पुराने मंदिर को पुनर्जीवित कर इसे भव्य तीर्थ और उत्सव का केंद्र बनाया जाएगा। उन्होंने अपने दृष्टिकोण को शब्द दिए— “विरासत से विकास तक यही हमारा मंत्र है।”
यह वाक्य यूँ ही नहीं चुना गया था। आज का भारत अतीत की पुनर्स्थापना और नई पहचान गढ़ने के बीच की सीमाओं को धुंधला करता जा रहा है। जब डॉ. यादव ने कृष्ण के मयूर-पंख को गाँव की आत्मा का प्रतीक बताया, या जब उन्होंने कंस का अंत करने वाले गोविंद को न्यायप्रिय शासक और लोक-आधारित व्यवस्था का जनक कहा, तब वे केवल धर्मग्रंथ का उल्लेख नहीं कर रहे थे। वे शासन को मिथक के साथ जोड़कर कृष्ण को आस्था से आगे बढ़ाकर किसान संस्कृति, नैतिक शक्ति और जननीति का प्रतीक बना रहे थे।
मंच पर यह प्रतीकवाद जितना प्रबल था, उतने ही ठोस वादे भी सामने आए। मुख्यमंत्री ने मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ-साथ सांची विधानसभा के लिए 136 करोड़ रुपये की विकास योजनाओं का खाका रखा—आदिवासी बस्तियों तक सड़कें, अस्पतालों का विस्तार, नई जनसेवाएँ। उन्होंने याद दिलाया कि भोपाल और इंदौर महानगरीय रूपांतरण की ओर बढ़ चुके हैं और अब यह बदलाव रायसेन, विदिशा और आस-पास के इलाकों तक फैलेगा, जिससे युवाओं को रोज़गार और आधारभूत सुविधाएँ मिलेंगी। इस तरह धार्मिक विरासत और विकास की धाराएँ एक साथ गुँथती दिखाई दीं।
लेकिन यह संगम गहरे सवाल भी उठाता है। एक ओर तो यह सही है कि मध्य भारत के असंख्य धरोहर स्थल उपेक्षा में ढह रहे हैं, जिनकी शिलालेख धूमिल हो रहे हैं और पूजा-पद्धति भी कमज़ोर पड़ रही है। यदि महलपुर पाथा का मंदिर नए जीवन से जुड़ता है तो यह केवल संरक्षण नहीं बल्कि स्थानीय समुदायों के लिए नयी पहचान भी बनेगा। लेकिन जब सरकारें अपनी वैधता सिद्ध करने के लिए विरासत की भाषा अपनाती हैं, तब शंका यह भी होती है कि कहीं कल्याणकारी नीतियाँ मिथकीय भाषणों के पीछे दब तो नहीं जाएँगी।
इसलिए समाधान संतुलन में है। सड़कें, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार ही मानव गरिमा की असली रीढ़ हैं। मंदिर और मेले इनका विकल्प नहीं हो सकते, लेकिन इनके साथ मिलकर ये विकास को गहराई दे सकते हैं। अगर मध्य प्रदेश सचमुच 13वीं शताब्दी की इस धरोहर को संरक्षित रखते हुए 21वीं सदी के शहरी अवसर भी उपलब्ध कराता है, तो “विरासत से विकास” का नारा केवल नारा न रहकर ठोस सच्चाई बन सकता है।
मामला सिर्फ स्थापत्य या अर्थव्यवस्था का नहीं है, बल्कि स्मृति और आधुनिकता के रिश्ते का है। जब राज्य महलपुर पाथा को “सबसे भव्य” बनाने की बात करता है, जब वह वार्षिक मेले की कल्पना करता है जिसमें संस्कृति और व्यापार साथ हों, तब यह केवल मंदिर को नहीं बल्कि पूरे नागरिक परिदृश्य को गढ़ने का इरादा है। यह धरोहर को अवशेष नहीं, बल्कि पहचान और आत्मगौरव का आधार मानने की कोशिश है।
असल परीक्षा इस बात की होगी कि क्या यह परियोजनाएँ केवल भाषणों तक सीमित रह जाती हैं या वास्तव में लंबे समय तक टिकती हैं। क्या संरक्षण विद्वतापूर्ण ईमानदारी से किया जाएगा या केवल सजावटी काम तक सीमित रहेगा? और क्या विकास केवल मंदिर तक सीमित न रहकर हर बस्ती और हर परिवार तक पहुँचेगा?
क्योंकि इतिहास सिर्फ पत्थरों में नहीं बसता। वह तब जीवित रहता है जब शासन में धर्म, कर्म और जिम्मेदारी का संतुलन दिखाई दे। तभी रायसेन की विरासत सिर्फ संरक्षित नहीं होगी, बल्कि नए रूप में पुनर्जीवित भी होगी।