भोपाल स्थित मुख्यमंत्री निवास में जन्माष्टमी की गूँज केवल पूजा और भक्ति तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह पहचान और स्मृति गढ़ने का मंच भी बनी। हज़ारों बच्चे राधा–कृष्ण का रूप धरकर भारत की सहस्राब्दियों पुरानी सांस्कृतिक धारा को जीवंत कर रहे थे। रंग, संगीत और भक्ति के बीच जो सबसे अलग दिखा, वह मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का संदेश था— ऐसा संदेश जो श्रद्धा की भूगोल को शासन की नीतियों से जोड़ने का प्रयास करता दिखा।
डॉ. यादव ने कहा, “जहाँ-जहाँ भगवान श्रीकृष्ण के चरण पड़े, वह भूमि पवित्र है।” इसके साथ ही उन्होंने उज्जैन के संदीपनी आश्रम, धार का जनपाव और अमझेरा जैसे स्थलों को तीर्थ के रूप में विकसित करने की घोषणा की। ठीक उसी तरह जैसे राम वन गमन पथ को राम की यात्रा से जोड़ा गया था, वैसे ही अब कृष्ण की लीलाओं को भी मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक मानचित्र में स्थापित करने की योजना है। यह केवल श्रद्धा का स्मरण नहीं, बल्कि विरासत को मूर्त रूप और ढाँचा देने का प्रयास है।
यह प्रतीकवाद केवल धार्मिक नहीं था। जब डॉ. यादव ने नन्हें कान्हा की माखन चोरियों को अत्याचार के ख़िलाफ़ प्रतीकात्मक विद्रोह बताया, तब उन्होंने कृष्ण को केवल ग्वालबाल नहीं, बल्कि धर्मरक्षक, दार्शनिक-राजा और जननायक के रूप में प्रस्तुत किया। इस तरह राजनीति और काव्य एक-दूसरे में घुलते नज़र आए; वृंदावन की बांसुरी मानो शासन का घोष बन गई।
धार्मिक विरासत को राजनीति से जोड़ना कोई नया प्रयोग नहीं है। आलोचक कहते हैं कि ऐसे प्रयास समावेशी संस्कृति को कहीं संकीर्ण पहचान में न बदल दें। फिर भी इन्हें केवल राजनीतिक नाटक कहकर नज़रअंदाज़ करना उचित नहीं होगा। भारत जैसे देश में, जहाँ आस्था और दैनिक जीवन गहराई से जुड़े हैं, कृष्ण से जुड़े स्थलों का पुनरुद्धार केवल धार्मिक भावनाओं तक सीमित नहीं, बल्कि आधुनिक समय में जड़ों से जुड़ने की चाहत को भी दर्शाता है।
मुख्यमंत्री का दृष्टिकोण केवल मंदिरों और तीर्थों तक सीमित नहीं था। उन्होंने कृष्ण–सुदामा की मित्रता को सामाजिक समरसता का प्रतीक बताया, जन्माष्टमी को अंबेडकर कामधेनु योजना जैसी योजनाओं से जोड़ा, और संदीपनी की तर्ज़ पर ऐसे विद्यालयों की घोषणा की जहाँ परंपरा और आधुनिक शिक्षा साथ-साथ चले। यहाँ कृष्ण केवल पूजनीय देवता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक दिशा–सूचक के रूप में प्रस्तुत किए गए।
लेकिन असली चुनौती यही है कि यह पहल केवल दिखावटी सजावट और योजनाओं की घोषणा तक न सिमटे। गीता की आत्मा— धर्म का पालन और गरिमा का संरक्षण— यदि सचमुच शासन में उतर सके तो यह बदलाव सार्थक होगा। सवाल यह है कि क्या जन्माष्टमी केवल उत्सव बनेगी या राज्य के लिए यह उस नैतिक दायित्व की याद दिलाएगी जो अर्जुन को युद्धभूमि पर मिली थी?
भोपाल में जब फूलों की वर्षा कृष्ण-रूप धरे बच्चों पर हुई, जब माताओं ने प्रसाद पाया और “नंद घर आनंद भयो” के स्वर गूँजे, तब यह केवल भक्ति का पर्व नहीं रहा। यह आस्था और राजनीति के संगम की कथा भी बन गया।
इस संगम में संभावनाएँ भी हैं और चुनौतियाँ भी। क्योंकि मध्यप्रदेश की जन्माष्टमी, मथुरा में जन्मे कृष्ण की स्मृति ही नहीं, बल्कि आधुनिक शासन में उस स्मृति के पुनर्जन्म का प्रतीक भी बन गई।