छत्तीसगढ़ का श्रमिक कल्याण मॉडल
भारत के निर्माण स्थलों पर जहाँ सीमेंट और लोहे के ढाँचे उठते हैं, वहीं सबसे बड़ी नींव पसीने और परिश्रम की होती है। गगनचुंबी इमारतें खड़ी होती हैं, पुल और सड़कें बनती हैं, लेकिन इन्हें गढ़ने वाले मज़दूर अक्सर हाशिए पर ही रह जाते हैं। यही विडंबना है जिसे बदलने का बीड़ा छत्तीसगढ़ की सरकार ने उठाया है।
जनवरी 2024 से सितंबर 2025 के बीच मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और श्रम मंत्री लखनलाल देवांगन के नेतृत्व में भवन एवं अन्य निर्माण कर्मकार कल्याण मंडल ने लगभग 7.3 लाख मज़दूरों का पंजीयन किया और 8.39 लाख से अधिक श्रमिकों को लाभ पहुँचाया। लगभग ₹535.62 करोड़ की राशि का व्यय यह साबित करता है कि यह केवल आँकड़े नहीं हैं, बल्कि सामाजिक न्याय की ठोस कोशिश है।
बिखरी योजनाओं से ‘छाता योजना’ तक
इस प्रयास के केंद्र में है अटल श्रम सशक्तिकरण योजना, जिसे प्रतीकात्मक रूप से ‘छाता योजना’ कहा गया है। लंबे समय से बिखरी और जटिल योजनाओं के जाल में उलझे असंगठित मज़दूरों के लिए यह एक एकीकृत दृष्टिकोण है। “श्रमेव जयते पोर्टल” से अब उन्हें सभी अधिकार एक ही खिड़की से मिल सकते हैं। वहीं, प्रवासी श्रमिकों के लिए “मोर चिन्हारी भवन” बनाने का संकल्प इस संदेश को और मज़बूत करता है कि वे केवल अस्थायी मज़दूर नहीं, बल्कि सम्मानित नागरिक हैं।
कल्याण नहीं, ज़रूरत
सरकार ने 106 निजी अस्पतालों से गठजोड़ कर कैशलेस इलाज और विशेष स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराई हैं। मातृत्व लाभ योजना, श्रम अन्न योजना और ननी बाबू मेधावी योजना ने यह दिखाया है कि श्रमिक का अधिकार केवल मज़दूरी तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य तक भी पहुँचना चाहिए।
महत्त्वपूर्ण यह है कि इसे दान की तरह नहीं, बल्कि आर्थिक आवश्यकता की तरह देखा जा रहा है। मकान बनाने के लिए ₹1 लाख की मदद या स्वरोज़गार के लिए ब्याज पर सब्सिडी, इन योजनाओं का असल संदेश यही है कि श्रमिक सिर्फ मज़दूरी करने वाला हाथ नहीं, बल्कि साझेदार है।
आँकड़ों के पीछे की चुनौती
11.35 लाख सस्ती थालियाँ परोसी गईं, 3,600 से अधिक परिवारों को मृत्यु या विकलांगता की स्थिति में सहायता मिली, और ₹327 करोड़ से अधिक की राशि डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) से सीधे खातों में पहुँची। यह पारदर्शिता पहले की लीक और भ्रष्टाचार की समस्याओं पर रोक लगाने का प्रयास है। लेकिन चुनौती यह है कि इसे ईमानदारी और निरंतरता से लागू किया जाए।
नैतिक जिम्मेदारी की ओर
सच तो यह है कि ये मज़दूर केवल ढाँचे नहीं खड़े कर रहे, बल्कि हमारे शहरों और सपनों की इमारत खड़ी कर रहे हैं। ऐसे में उनके स्वास्थ्य, बच्चों की पढ़ाई और परिवार की सुरक्षा में निवेश करना कोई कृपा नहीं, बल्कि वह ऋण है जिसे समाज को लौटाना ही होगा।
यदि छत्तीसगढ़ इस अभियान को पारदर्शिता और श्रमिक सहभागिता के साथ आगे बढ़ा सका, तो यह मॉडल देशभर के लिए प्रेरणा बन सकता है। आखिरकार, किसी समाज की असली पहचान उसकी सड़कों की चमक में नहीं, बल्कि उन हाथों की हालत में झलकती है जिन्होंने उन्हें बनाया।