हिंदी की अनवरत धारा
जब मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने कहा कि “जैसे चार धाम माँ के चरणों में बसते हैं, वैसे ही जीवन का शाश्वत आश्रय मातृभाषा की गोद में मिलता है”, तो यह मात्र अलंकार नहीं था, बल्कि भारतीय संस्कृति की गहराई से निकला सत्य था। माँ और मातृभाषा दोनों ही पहचान और संस्कार की धुरी हैं, जिनका कोई विकल्प नहीं हो सकता।
हिंदी: आत्मा को जोड़ने वाली भाषा
हिंदी दिवस का आयोजन इस बार केवल औपचारिकता नहीं रहा। यह वह क्षण था, जब हिंदी की वैश्विक ताक़त और उसकी सांस्कृतिक आत्मा दोनों एक साथ रेखांकित हुईं। मुख्यमंत्री ने सही ही कहा कि हिंदी केवल माध्यम नहीं है, बल्कि वह पहला विद्यालय है जहाँ बच्चा “अ से ज्ञ तक” चलना सीखता है। यही भाषा अनपढ़ को ज्ञानी बनाती है और आमजन को आत्मविश्वास देती है।
आज हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। लेकिन उसकी असली ताक़त यह है कि वह जोड़ती है, बाँटती नहीं। इसमें साहित्य की समृद्धि है, लोकगीतों की आत्मा है और करोड़ों लोगों की भावनाएँ हैं। बिना हिंदी के हमारी संवेदनाएँ, हमारे गीत और हमारे मौन तक अधूरे हो जाते हैं।
परंपरा से आधुनिकता तक
कार्यक्रम में जब भारत और विदेशों के हिंदी लेखकों को सम्मानित किया गया, तो यह संदेश साफ़ था कि हिंदी भूगोल की सीमाओं में क़ैद नहीं है। इंग्लैंड से लेकर श्रीलंका तक, रूस से ऑस्ट्रेलिया तक हिंदी अपने प्रवासी जनों के साथ फैलती रही है। यह किसी प्रांतीयता की नहीं बल्कि विश्वव्यापकता की भाषा है।
मुख्यमंत्री ने इतिहास का स्मरण कराते हुए अल्हा-ऊदल की वीरगाथाओं से लेकर रानी लक्ष्मीबाई के उद्बोधन और कालिदास की अमर रचनाओं तक हिंदी की रक्षा और गरिमा का उल्लेख किया। इसी कड़ी में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की कविता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी प्रयोग का उदाहरण दिया, जिसने भाषा को नई गरिमा दी है।
मातृभाषा का कर्तव्य
हिंदी को केवल उत्सव और स्मृति तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह तभी जीवित रहेगी, जब यह विज्ञान और तकनीक की भाषा भी बनेगी। मध्य प्रदेश ने साहसिक पहल करते हुए चिकित्सा शिक्षा हिंदी में शुरू की है। यह कदम उस दिशा में महत्वपूर्ण है, जहाँ हिंदी केवल कविता की भाषा न रहकर भौतिकी, विधि और चिकित्सा की भी भाषा बने।
भाषा तभी प्राणवान होती है जब वह रोज़मर्रा की ज़िंदगी और आधुनिक ज्ञान में बराबरी से खड़ी हो। अगर हमने हिंदी को केवल साहित्य तक बाँध दिया तो यह भविष्य की पीढ़ियों से दूर हो जाएगी।
हिंदी दिवस की आत्मा
संस्कृति मंत्री शिवशेखर शुक्ल ने सही कहा कि यह आयोजन केवल स्मरण नहीं, बल्कि आत्मबोध का उत्सव है। साहित्यकारों का सम्मान हो, राष्ट्रीय पुरस्कार हों या मुख्यमंत्री की माँ और मातृभाषा की सुंदर उपमा सब मिलकर यही संदेश देते हैं कि हिंदी सीमित नहीं, अनंत है। यह घर की लोरी भी है और संसद की वाणी भी।
इसी दिन जब इंजीनियरों का भी सम्मान हुआ, तो एक सुंदर समांतरता दिखी इंजीनियर जहाँ पत्थरों से पुल बनाते हैं, वहीं लेखक अर्थों के पुल रचते हैं। और इन्हीं दोनों से गणराज्य की स्थिरता बनती है।
निष्कर्ष
जब तक मातृभाषा हमारे घरों, गीतों, धर्मग्रंथों और विज्ञान की किताबों में साँस लेती रहेगी, भारत जीवंत रहेगा। हिंदी की रक्षा कोई प्रांतीय आग्रह नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत संकल्प है स्मृति और आधुनिकता के बीच पुल बनाने का।