पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत से होने वाले आयात पर 25% शुल्क लगाने और रूस के साथ भारत के ऊर्जा व रक्षा सहयोग पर प्रतिबंधों की धमकी ने उस साझेदारी की अस्थिरता को उजागर कर दिया है, जिसे एक समय “रणनीतिक सहयोग” कहा जाता था। यह घटनाक्रम एक “मौसमी मित्रता” की सच्चाई को दर्शाता है—ऐसी मित्रता जो तब तक साथ निभाती है जब तक भारत अमेरिका के हितों से पूरी तरह सहमत रहता है।
संप्रभुता से समझौता नहीं
इस प्रकार की लेन-देन वाली कूटनीति का अर्थ है कि भारत को अपने दीर्घकालिक हितों को त्यागकर विदेशी दबावों के आगे झुकना होगा। चाहे वह रूस के साथ ऐतिहासिक ऊर्जा और रक्षा संबंधों को बनाए रखना हो या फिर अपने कृषि व डेयरी क्षेत्रों की सुरक्षा—भारत का प्रत्येक निर्णय स्वदेशी आवश्यकताओं और आत्मनिर्भर रणनीति पर आधारित है।
कृषि और डेयरी जैसे क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था के स्तंभ हैं, जिनसे करोड़ों छोटे किसान जुड़े हुए हैं। इन्हें केवल व्यापारिक वस्तु मान लेना अमेरिका की भूल है। ये क्षेत्र ग्रामीण स्थिरता, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक संतुलन के आधार हैं। यदि भारत इन क्षेत्रों को विदेशी उत्पादों के लिए खोलता है, तो यह केवल बाज़ार खोना नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत की आत्मा को चोट पहुंचाना होगा।
विदेश नीति में हस्तक्षेप स्वीकार नहीं
भारत की रूस से रक्षा सौदे या ऊर्जा आपूर्ति को लेकर अमेरिकी दबाव भारत की विदेश नीति में सीधा हस्तक्षेप है। भारत एक संप्रभु राष्ट्र है और उसकी विदेश नीति इतिहास, भू-राजनीतिक विवेक और दीर्घकालिक रणनीतिक हितों से प्रेरित है। किसी भी बाहरी ताकत के आगे झुकना भारत की स्वायत्तता को कमजोर करेगा।
यह समय है कि भारत इस चुनौती को आत्मनिर्भरता की दिशा में सुधारों के अवसर के रूप में देखे—मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दे, नीतिगत स्पष्टता लाए, और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अपनी भूमिका सशक्त करे।
तकनीकी संप्रभुता का सवाल
व्यापार से आगे बढ़कर, यह संघर्ष अब तकनीक के क्षेत्रों तक फैल गया है—जैसे कि सेमीकंडक्टर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और साइबर सुरक्षा। अमेरिका चाहता है कि भारत तकनीकी दृष्टि से उसका अनुसरणकर्ता बने, न कि एक स्वतंत्र नवोन्मेषक। भारत को चाहिए कि वह डिजिटल संप्रभुता की दिशा में निवेश करे, डेटा और तकनीकी अधोसंरचना पर अपना नियंत्रण बनाए रखे, और किसी भी बाहरी दबाव से मुक्त नीति अपनाए।
राजनीतिक संकेतों को पढ़ना ज़रूरी है
ट्रंप द्वारा पाकिस्तान के साथ अचानक ऊर्जा समझौते की घोषणा और साथ ही भारत को व्यापारिक दंड देने की धमकी यह दिखाती है कि ‘महाशक्ति’ राजनीति में रणनीतिक और वाणिज्यिक हितों के बीच कोई स्थिरता नहीं होती। भारत को अब केवल बयानबाज़ी पर नहीं, वास्तविक भू-राजनीतिक संकेतों पर ध्यान देना होगा और अपनी नीति उसी के अनुसार तय करनी होगी।
भारत की दिशा स्पष्ट होनी चाहिए
भारत को यह समझना होगा कि दबाव और शर्तों पर टिकी दोस्ती टिकाऊ नहीं होती। सच्चे वैश्विक भागीदार बनने के लिए जरूरी है कि भारत अपने निर्णय संप्रभुता, आत्मविश्वास और दीर्घकालिक सोच के साथ ले।
“यह सिर्फ व्यापारिक नीति की परीक्षा नहीं है, बल्कि भारत की वैश्विक भूमिका को परिभाषित करने वाला एक निर्णायक क्षण है।”
भारत को अब यह दिखाना होगा कि वह केवल सहयोग चाहता है, आज्ञा नहीं। और जब भी ‘मौसमी दोस्त’ पीठ मोड़ें, भारत को अपनी नीतियों और आत्मनिर्भरता पर भरोसा रखना होगा।