तमिलनाडु की चुनावी सरगर्मी इस बार केवल वादों और रैलियों तक सीमित नहीं है—यह एक गहन सांस्कृतिक युद्धभूमि बन चुकी है, जहाँ हज़ार साल पुरानी चोल साम्राज्य की विरासत को राजनीतिक अस्त्र बना लिया गया है। डीएमके और भाजपा, दोनों ही दल अब इतिहास के पन्नों में अपनी जगह तलाशते हुए तमिल अस्मिता की व्याख्या को पुनर्लेखित करने में जुटे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तंजावूर दौरा—जो चोल स्थापत्य और सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक है—एक सधी हुई राजनीतिक चाल थी। ‘विकसित भारत’ के संकल्प के साथ चोल वैभव को जोड़ना, और आदि तिरुवथिरई जैसे पारंपरिक पर्व को राजकीय आयोजन में परिवर्तित करना, भाजपा की उस रणनीति को दर्शाता है जिसमें वह तमिल भावनाओं को आत्मसात कर राष्ट्रीय विमर्श में पिरोना चाहती है। यह भाजपा की पुरानी भूलों—जैसे तमिल भाषा व संस्कृति की उपेक्षा—से उबरने का प्रयास भी है।
उधर, डीएमके चुप नहीं बैठी। चोल उत्सवों की राज्य-स्तरीय मान्यता, भव्य चोल संग्रहालय की घोषणा, और ऐतिहासिक चोलगंगम टैंक के पुनरुद्धार जैसे प्रयास उसके दावों को और मजबूत करते हैं। डीएमके यह संदेश देना चाहती है कि चोल विरासत केवल स्मृति नहीं, बल्कि जीवंत सांस्कृतिक स्वाभिमान है—और उसकी असली संरक्षक वही है।
लेकिन इस सांस्कृतिक जंग के नीचे छिपी है गहरी राजनीतिक प्रतीकात्मकता। भाजपा का त्रिभाषा फार्मूला, कीलाड़ी खुदाई से जुड़ा विवाद, और क्षेत्रीय इतिहास की ‘मुख्यधारा में एकरूपता’—डीएमके इन्हें तमिल पहचान पर हमले की तरह प्रस्तुत कर रही है। चोल इतिहास इस पृष्ठभूमि में ‘प्रतिकार की परंपरा’ बन चुका है—एक ढाल, जो केंद्रीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध क्षेत्रीय गौरव की रक्षा करता है।
इस सियासी समर में अभिनेता विजय जैसे नए चेहरों की एंट्री, डीएमके पर ‘तमिल हितों की रक्षा में ढील’ का आरोप लगाकर समीकरणों को और उलझा देती है। वहीं, एआईएडीएमके की वापसी इस युद्धभूमि को त्रिकोणीय बना रही है, जिससे कोई भी दल ज़मीन को अपनी मानकर नहीं चल सकता।
दरअसल, यह लड़ाई इतिहास की पुनर्परिभाषा की है—कौन तय करेगा तमिल पहचान का स्वरूप, और कौन इसे राजनीति की ज़ुबान देगा। चोल साम्राज्य अब सिर्फ पुरानी ईंटों का ढेर नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श की धधकती चिंगारी है—जिसे कोई अपनी लौ में ढालना चाहता है, तो कोई अपनी परंपरा में संजोकर रखना।
निष्कर्षतः, तमिलनाडु की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ विरासत इतिहास की नहीं, भविष्य की कुंजी बन चुकी है। चोल विरासत का यह पुनर्जागरण एक चेतावनी है—कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान अब केवल सांस्कृतिक नहीं रहा; यह चुनावी रणनीति का केंद्रबिंदु है। तमिल जनता का निर्णय यह तय करेगा कि क्या डॉविडियन परंपरा ही असली उत्तराधिकारी बनी रहेगी, या भारत की ‘एकता में विविधता’ अब दक्षिण में भी नई परिभाषा पाएगी।
यह युद्ध केवल अतीत की स्मृति का नहीं—यह भविष्य के तमिलनाडु की पहचान का निर्धारण है।





