एक साल पहले तक बांग्लादेश उम्मीद की एक अनिश्चित लेकिन जीवंत लकीर पर खड़ा था। शेख हसीना और अवामी लीग की सत्ता से विदाई को कुछ लोगों ने लोकतांत्रिक पुनर्जागरण की शुरुआत मान लिया था—जैसे देश ने किसी बोझिल अतीत से पिंड छुड़ा लिया हो। लेकिन आज, 2025 में, वही बांग्लादेश संवैधानिक अराजकता, धार्मिक उग्रवाद और संस्थागत दरकने की दहलीज पर खड़ा है।
प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में जो तथाकथित “अंतरिम सरकार” बनी थी, उससे यह अपेक्षा थी कि वह परिवर्तन की राह खोलेगी। लेकिन वह न सुधारक साबित हुई, न ही स्थायित्व लाने वाली शक्ति। इसके बजाय, शासन-तंत्र पर मज़हबी कट्टरपंथ, भीड़तंत्र और न्याय के क्षरण का साया गहराता गया।
भीड़ द्वारा हत्याओं के मामलों में बारह गुना वृद्धि कोई आकस्मिक उबाल नहीं, बल्कि एक गहरी सुनियोजित राजनीतिक बीमारी का लक्षण है। आज बांग्लादेश में अदालती प्रक्रिया और कानून का शासन केवल संविधान की किताबों में बचा है। ज़मीनी हक़ीक़त में, फ़ैसले अब अफवाहों, वायरल वीडियो और धर्म के नाम पर उकसाए गए क्रोध से लिए जा रहे हैं।
सबसे चिंताजनक है राष्ट्र की वैचारिक आत्मा का पुनर्लेखन। जिस देश की बुनियाद बहुलतावादी मूल्यों पर 1971 में रखी गई थी, वहां अब जमात-ए-इस्लामी और उससे जुड़े चरमपंथी गुट बांग्लादेश की आत्मा को एकरंगी धार्मिक वर्चस्व में ढालने का अभियान चला रहे हैं। बंगबंधु शेख मुजीब की मूर्तियाँ गिराई जा रही हैं, ऐतिहासिक प्रतीकों को मिटाया जा रहा है, और शैक्षिक-सांस्कृतिक केंद्रों को धर्म के चश्मे से देखा जा रहा है।
आज विश्वविद्यालयों से लेकर मीडिया हाउस तक, विचारों की विविधता को संदेह की निगाह से देखा जा रहा है। अल्पसंख्यक बस्तियों पर हमले, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारियाँ, और चुनावों का अनिश्चित स्थगन—ये सब संकेत करते हैं कि बांग्लादेश धीरे-धीरे लोकतंत्र नहीं, धर्मतंत्र की ओर फिसल रहा है।
इस विकृति को और भयावह बनाता है “सल्तनत-ए-बंगला” जैसे आंदोलनों का उदय, जिन्हें कुछ बाहरी शक्तियों का समर्थन भी बताया जा रहा है। यह न केवल बांग्लादेश की अखंडता के लिए खतरा है, बल्कि दक्षिण एशिया में अस्थिरता की चिंगारी भी।
विडंबना यह है कि अवामी लीग और बीएनपी जैसी परंपरागत राजनीतिक ताक़तें, जनसमर्थन होने के बावजूद, संगठित प्रतिरोध खड़ा करने में विफल रही हैं। जनमत आज दिशाहीन है, और जनआंदोलन केवल सोशल मीडिया तक सीमित होकर रह गया है।
आज बांग्लादेश एक सांस्कृतिक अंधकार की कगार पर खड़ा है। और इस बार संकट केवल राजनीतिक नहीं, नैतिक और वैचारिक है। सवाल है कि क्या यह राष्ट्र अपनी धर्मनिरपेक्ष आत्मा को बचा पाएगा, या एक कट्टरपंथी व्यवस्था के अधीन उसे गवां देगा?
अब क्या ज़रूरी है?
- अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तटस्थ नहीं, सक्रिय भूमिका—चुप रहना अब तटस्थता नहीं, मिलीभगत कहलाएगी।
- बांग्लादेश के नागरिक समाज का पुनर्जीवन—बुद्धिजीवी वर्ग, छात्रों और उदार मुस्लिम नेतृत्व को मिलकर पुनः विचार-स्वतंत्रता की लौ जलानी होगी।
- भारत जैसे पड़ोसी देशों की कूटनीतिक सजगता—धार्मिक राष्ट्रवाद की लहर सीमाएं नहीं मानती; बांग्लादेश का भविष्य भारत की आंतरिक शांति से जुड़ा हुआ है।
यदि अब भी आवाज़ नहीं उठाई गई, तो बांग्लादेश का यह अधोपतन न केवल एक राष्ट्रीय त्रासदी होगा, बल्कि क्षेत्रीय अस्थिरता और दक्षिण एशिया के सेकुलर प्रयोग का अंत भी।