शासन के इतिहास में कुछ पल ऐसे होते हैं जो लोकप्रिय नारों से नहीं, बल्कि सिद्धांतों की दृढ़ता से याद रखे जाते हैं। इसी सप्ताह नई दिल्ली में, जब पंजाब के उपजाऊ खेतों से लेकर दक्षिण के धान क्षेत्रों तक के किसान एकत्र हुए, तो एक संदेश साफ था — हालिया वैश्विक व्यापार वार्ताओं में भारत का रुख कृषि संरक्षण की लाल रेखा खींच चुका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिकी दबाव सहित विदेशी मांगों को ठुकराना, जिसमें भारत के कृषि और डेयरी क्षेत्र को खोलने की बात थी, महज़ शुल्क या कोटा नीति नहीं है। यह हमारी संप्रभुता पर एक स्पष्ट घोषणा है — कि देश का अन्न कौन उगाएगा और कैसे, इसका निर्णय दिल्ली में होगा, किसी और की मेज पर नहीं। एक ऐसे वैश्विक परिदृश्य में, जहां ‘बाज़ार तक पहुंच’ अक्सर परोपकार का मुखौटा पहन लेती है, यह फैसला कहता है कि भारत का अन्न भंडार किसी सौदेबाज़ी की वस्तु नहीं है।
किसान: राष्ट्र का पहला प्रहरी
इस नीति का असली दम आधिकारिक विज्ञप्तियों में नहीं, बल्कि धरती से जुड़े स्वरों में था। भारतीय किसान संघ, चौधरी चरण सिंह किसान संगठन, और छत्तीसगढ़ युवा प्रगतिशील किसान संगठन के नेताओं ने राहत और दृढ़ता के मिश्रण के साथ कहा कि यह केवल संरक्षणवाद नहीं, बल्कि यह स्वीकारोक्ति है कि गणराज्य की रणनीति में किसान ‘बाद में सोचने’ का विषय नहीं, बल्कि पहला प्रहरी है।
वीरेंद्र लोहन के शब्दों में, भारतीय किसान “इस राष्ट्र की आत्मा है, जिसे कोई विदेशी शक्ति कभी वश में नहीं कर सकती।” वहीं, धरमेंद्र चौधरी ने इसे पीढ़ियों तक गूंजने वाला ग्रामीण आत्मनिर्भरता का निवेश बताया।
भरोसे का अनुबंध
केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान का यह कथन कि “अन्न ही जीवन है, अन्न ही ईश्वर है” महज़ नारा नहीं, बल्कि एक दार्शनिक अनुबंध था। उन्होंने मिलावटी बीज, खाद और कीटनाशकों पर कानून बनाने और पीएम फसल बीमा योजना के तहत बीमा भुगतान को किसानों के प्रति सरकार की सजगता का ठोस प्रमाण बताया।
उन्होंने इस कृषि नीति को प्रधानमंत्री के व्यापक ‘नेशन फ़र्स्ट’ दृष्टिकोण से भी जोड़ा — चाहे वह पहलगाम के बाद सिंधु जल संधि पर ठोस रुख हो, या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर निर्भीक निर्णय। यह निरंतरता किसानों के लिए महत्वपूर्ण है, जो लंबे समय से नीतिगत अस्थिरता से थक चुके हैं।
वास्तविकता बनाम आलोचना
आलोचक कह सकते हैं कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा से कृषि को बचाना अकुशलता को पनपा सकता है। यह चिंता उचित है, लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि व्यापार केवल अर्थशास्त्र का विषय नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के जीवन और खाद्य सुरक्षा से जुड़ा है। भारत को दुनिया से जुड़ना है, लेकिन अपने नियमों पर — न कि वॉशिंगटन, ब्रसेल्स या बीजिंग की शर्तों पर।
आगे का रास्ता
एक साहसिक फैसला स्थायी बदलाव का विकल्प नहीं है। सिंचाई आधुनिकीकरण, मिट्टी की सेहत, बाज़ार सुधार, उचित एमएसपी, और खेत से थाली तक बेहतर संपर्क — ये सब अनिवार्य हैं। लेकिन ऐसे प्रतीकात्मक फैसले राष्ट्र निर्माण में आत्मविश्वास बोते हैं, जो आगे सुधारों को सहारा देते हैं।
आज भारत के किसानों ने एक स्वर में कहा है कि वे सरकार के साथ हैं। यह दुर्लभ क्षण है जब नीति, राजनीति और जनभावना एक साथ खड़ी हैं। चुनौती यह है कि यह एकबारगी एकजुटता न रह जाए, बल्कि भरोसे पर आधारित एक स्थायी साझेदारी बने, जिसमें अन्नदाता को दया का पात्र नहीं, बल्कि आर्थिक संप्रभुता का अनिवार्य हितधारक माना जाए।