कोरबा ब्लॉक के घने जंगलों के बीच बसे एक छोटे से गाँव में, जहाँ अभाव अक्सर नियति का रूप ले लेता है, वहीं एक बुज़ुर्ग महिला की कहानी उम्मीद और आत्मबल का प्रतीक बनकर उभरती है। चेरकिन बाई निसंतान, अकेली, और एक जर्जर कच्ची झोपड़ी में उम्र ढलते हुए बरसों से यह मान चुकी थीं कि पक्के घर का सपना उनके हिस्से में कभी नहीं आएगा। टपकती छतों वाली बरसातें, बार-बार दीवारों को गोबर–मिट्टी से पोतने की थकान, और गरीबी की वह बेबसी जिसने चाहतों को केवल जीवित रहने तक सीमित कर दिया यही उनकी दुनिया थी।
लेकिन कभी-कभी सरकार का विशाल और दूर-दराज़ लगता ढांचा किसी ज़रूरतमंद की ज़िंदगी को इतनी साफ़गोई से छू लेता है कि विश्वास करना कठिन हो जाता है। जब प्रधानमंत्री आवास योजना की सूची में उनका नाम आया तो चेरकिन बाई को यक़ीन ही नहीं हुआ कि वह सरकार, जो दशकों से उनके जीवन से अनुपस्थित थी, अब उनके बुढ़ापे को बदलने आएगी। धीरे-धीरे, रिश्तेदारों की मदद और योजना की किश्तों से ईंट दर ईंट उनका नया आशियाना खड़ा हुआ। जहाँ पहले कमजोर झोपड़ी खड़ी थी, वहाँ आज पक्का घर है। अब बारिश उनकी छत से भीतर नहीं रिसती, और तूफ़ान की रातें उन्हें भयभीत नहीं करतीं।
यह सिर्फ़ एक घर की कहानी नहीं है। यह उस गहरे प्रतीकवाद को भी दर्शाती है जहाँ भारत के दूरस्थ गाँवों के ग़रीब और हाशिए पर खड़े लोग पक्की छत को केवल आश्रय नहीं, बल्कि गरिमा मानते हैं। घर होना केवल मौसम की मार से बचाव नहीं, बल्कि मानसिक संबल भी है एक ऐसी जगह जिसके इर्द-गिर्द भविष्य की नन्ही-नन्ही आशाएँ आकार ले सकती हैं।
निश्चित है कि आलोचक इस योजना की खामियों को गिनाएँगे अधूरी पहुँच, काग़ज़ी अड़चनें और ग़लत वितरण की शिकायतें। और यह संदेह उचित भी है। लेकिन आँकड़ों के पीछे छुपी कहानियाँ, जैसे चेरकिन बाई की, इस योजना के उन शांत बदलावों को सामने लाती हैं जिन्हें आँकड़ों से मापा नहीं जा सकता।
उनके शब्दों की मार्मिकता कि यह घर उनके लिए “आशीर्वाद” है कोई भावुकता नहीं, बल्कि नागरिकता की पुनर्प्राप्ति है। जिसने उम्मीद छोड़ दी थी, उसके लिए यह छत केवल ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि सम्मान और अस्तित्व की स्वीकृति है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को धन्यवाद देते हुए वे अकेली स्त्री नहीं बोल रही थीं, बल्कि उन अनगिनत वृद्धाओं की आवाज़ बन रही थीं जो भारत के सुदूर कोनों में उम्मीद और हार मान लेने के बीच झूल रही हैं।
केरकछार गाँव में खड़ा यह पक्का घर नीति-निर्माताओं को दो बातें याद दिलाता है: पहली, कि यदि कल्याणकारी योजनाएँ ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ पहुँचें तो भूले-बिसरे लोगों की निस्तब्ध पीड़ा बदल सकती है; और दूसरी, कि हर सफल हस्तक्षेप नागरिक और राज्य के बीच टूटे विश्वास को जोड़ता है।
नीतियों की गलियारों में अक्सर आँकड़े ही दिखाई देते हैं, लेकिन चेरकिन बाई की कहानी हमें ठहरकर यह सोचने पर मजबूर करती है कि सफलता का असली पैमाना वही अकेली विधवा है जो टपकती छत को थामे बैठी थी, वही वृद्धा जो हर बरसात से पहले आसमान को चिंतित आँखों से देखती थी।
आज, उनके लिए जंगल की बारिश अब डर का कारण नहीं रही। उनकी छत से अब टपकता नहीं, बल्कि बहता है सम्मान और जीवन का नया आत्मविश्वास।