भारत में एक बार फिर वन नेशन, वन इलेक्शन (ONOE) पर बहस छिड़ी है। देखने में यह चुनावी कैलेंडर का तकनीकी सुधार लगता है, लेकिन असल में यह सवाल कहीं गहरा है—भारत अपने लोकतांत्रिक भविष्य की कौन-सी परंपरा गढ़ना चाहता है? दक्षता को प्राथमिकता देना या संघीय विविधता को सुरक्षित रखना?
दक्षता का आकर्षण
समर्थकों का तर्क सीधा है। लगातार चुनावी प्रक्रिया से न तो सरकारें चैन से काम कर पाती हैं और न ही प्रशासनिक ऊर्जा का पूरा उपयोग हो पाता है। यदि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ हों, तो खर्च भी घटेगा और “हमेशा चुनावी मोड” में रहने की राजनीति भी थमेगी। जर्मनी, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के उदाहरण इस तर्क को मजबूती देते हैं।
लेकिन अनुभव यह भी बताता है कि एकरूपता हमेशा स्थिरता नहीं देती। बेल्जियम 2010 में 589 दिन तक बिना निर्वाचित सरकार के रहा। अमेरिका में तय अवधि वाले चुनाव भी देश को लगभग निरंतर चुनावी माहौल से मुक्त नहीं कर पाए। यानी दक्षता की चमक के पीछे लोकतांत्रिक जटिलताएँ छिपी रहती हैं।
संघीय ढाँचे की कसौटी
भारत का लोकतंत्र केवल संसद तक सीमित नहीं है। राज्यों की अपनी राजनीतिक धड़कन है। अलग-अलग चुनावी चक्रों से मतदाता राष्ट्रीय और प्रांतीय मुद्दों को अलग-अलग तराजू पर तौलते हैं। यदि सब चुनाव एक साथ होंगे, तो यह भेद धुंधला पड़ सकता है। नतीजा यह कि केंद्र की लहर राज्य चुनावों को निगल ले और संघीय स्वायत्तता कमजोर हो।
यह विविधता महज़ संयोग नहीं, बल्कि संविधान का सुरक्षा कवच है, जो सुनिश्चित करता है कि भारत की लोकतांत्रिक धुन एक ही स्वर में न बंधकर अनेक सुरों का संगम बने।
विकल्प और सुधार
यह भी सही है कि बार-बार चुनाव से शासन अवरुद्ध होता है। लेकिन समाधान केवल चुनावों को समेट देना नहीं है। कंस्ट्रक्टिव वोट ऑफ नो कॉन्फिडेंस जैसी व्यवस्थाएँ—जहाँ सरकार तभी गिर सकती है जब नया नेता बहुमत साबित करे—स्थिरता ला सकती हैं। नेपाल और जर्मनी ने इसे अपनाया है। भारत भी संस्थागत नवाचारों के जरिए स्थिरता बढ़ा सकता है, बिना चुनावी विविधता खोए।
परंपरा बनाम प्रयोग
लोकतंत्र केवल क़ानून की किताब से नहीं चलता, बल्कि राजनीतिक संस्कारों से भी संचालित होता है। ब्रिटेन में तय अवधि वाले संसद कानून जल्दी ही खत्म हो गया क्योंकि वहाँ की परंपरा प्रधानमंत्री को चुनाव बुलाने का अधिकार देती है। वहीं नेपाल की अदालत ने समयपूर्व विघटन रोककर एक नई परंपरा गढ़ी।
भारत किस परंपरा को अपनाएगा—यह असली सवाल है। क्या हम दक्षता के नाम पर बहुलतावाद की आहुति देंगे, या धीरे-धीरे ऐसी राजनीतिक परिपक्वता विकसित करेंगे जहाँ सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करें और जनता अपने समय पर फिर निर्णय ले?
लोकतंत्र की असली कसौटी
ONOE को केवल लागत कम करने के उपाय के रूप में नहीं देखा जा सकता। चुनाव भारत में लोकतांत्रिक जीवन का उत्सव हैं—सभा, बहस, रैलियाँ और लोगों की शिकायतें दर्ज करने का अवसर। इन्हें एक साथ समेट देना शायद सुविधाजनक हो, लेकिन यह लोकतंत्र की बहुरंगी लय को सपाट बना सकता है।
इसलिए भारत को जल्दबाज़ी में कदम नहीं उठाना चाहिए। आवश्यकता है ऐसी परंपराओं की जो दक्षता और बहुलता दोनों को साथ लेकर चलें। यदि कभी ONOE लागू हो भी, तो वह संविधान की आत्मा, संघीय संतुलन और भारत की सामाजिक वास्तविकताओं में गहराई से जड़ा होना चाहिए।