भारत में हर त्योहार उम्मीदों के साथ आता है। इस बार प्रधानमंत्री ने देशवासियों को दिवाली का तोहफ़ा कर सुधार के रूप में दिया है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की जटिल संरचना को सरल बनाने का वादा किया गया है। घोषणा जितनी आकर्षक है, उतनी ही चुनौतीपूर्ण भी। सवाल यही है कि यह सुधार अर्थव्यवस्था को नई रोशनी देगा या फिर चिंगारी की तरह चमककर फीका पड़ जाएगा।
जीएसटी: सरल कर की अधूरी कहानी
जब 2017 में जीएसटी लागू हुआ था, तो इसे “गुड एंड सिंपल टैक्स” बताया गया। उद्देश्य था पूरे देश में कर ढांचे को एकीकृत करना। लेकिन वास्तविकता कुछ और बनी। पाँच अलग-अलग कर स्लैब, दर्जनों अपवाद और मुआवजा उपकर ने इसे इतना जटिल बना दिया कि व्यापारी से लेकर उपभोक्ता तक उलझकर रह गए। यहाँ तक कि यह तय करने में भी बहस छिड़ जाती थी कि चॉकलेट से ढकी बिस्किट विलासिता है या ज़रूरी वस्तु।
नए प्रस्ताव में पाँच स्लैब घटाकर केवल दो कर दिए गए हैं—आवश्यक वस्तुओं पर 5 प्रतिशत और अधिकांश अन्य वस्तुओं व सेवाओं पर 18 प्रतिशत। इसके अलावा “पाप वस्तुओं” पर 40 प्रतिशत का भारी कर लगाया जाएगा। इससे एक ओर आम परिवारों को राहत मिल सकती है, तो दूसरी ओर उद्योग जगत भी 28 प्रतिशत की ऊँची दर से मुक्त होकर निवेश व उत्पादन बढ़ा सकता है।
घोषणा और क्रियान्वयन के बीच की मुश्किलें
चुनौती कर संरचना से अधिक उसके संक्रमण काल में है। दरें घटने की घोषणा होते ही व्यापार ठहर सा गया है। वितरक इंतज़ार में बैठे हैं, गोदामों में माल अटक गया है। सरकार ने मुनाफाखोरी पर रोक लगाने के प्रावधान तो बनाए हैं, लेकिन इतिहास बताता है कि इनका पालन करवाना बेहद कठिन है। बाज़ार हमेशा नियमों से ज़्यादा तेज़ी से रास्ता निकाल लेता है।
वैश्विक अनिश्चितता के बीच कदम
यह सुधार ऐसे समय में लाया जा रहा है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था संरक्षणवाद, व्यापार युद्ध और मंदी के डर से जूझ रही है। जीएसटी दरों में कटौती का लक्ष्य घरेलू खपत को बढ़ावा देना और उद्योगों को बाहरी झटकों से बचाना है। सरकार का भरोसा है कि कम दरें टैक्स आधार को व्यापक बनाएँगी और लंबे समय में राजस्व भी बढ़ाएँगी। लेकिन यह विश्वास तभी सच होगा जब विशाल और विविध भारतीय बाज़ार सकारात्मक प्रतिक्रिया देगा।
राज्यों की चिंता
जहाँ केंद्र इसे नवाचार बता रहा है, वहीं राज्य सरकारें चिंतित हैं। जीएसटी मुआवज़ा जल्द ही समाप्त होने वाला है। राज्यों को डर है कि आय घटने से उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं पर असर पड़ेगा। असली चुनौती यह होगी कि केंद्र और राज्य किस तरह संतुलन साधते हैं। अगर राज्यों की झोली खाली हुई, तो “एक देश, एक कर” का सपना कमजोर हो सकता है।
त्योहार से परे असली परीक्षा
सरकार ने इस सुधार को दिवाली के तोहफ़े के रूप में पेश किया है। ज़रूरी सामान पर राहत, कारीगरों के लिए सहारा और मध्यवर्ग को फायदा—यह सब सुनने में सुखद लगता है। लेकिन जनता को तब तक भरोसा नहीं होगा जब तक उसके खर्चों में वास्तविक कमी दिखाई न दे। अगर मुनाफाखोरी या जमाखोरी बढ़ी, तो सुधार का असर धुंधला हो जाएगा।
निष्कर्ष
जीएसटी का सरलीकरण लंबे समय से अधूरी कहानी रहा है। नए स्लैब की घोषणा न केवल एक ज़रूरी कदम है बल्कि वैश्विक अस्थिरता के बीच रणनीतिक भी है। फिर भी इसकी सफलता केवल घोषणा पर नहीं, बल्कि उसके सटीक क्रियान्वयन पर निर्भर करेगी। सरकार को बाज़ार की जटिलताओं को साधना होगा और राज्यों के साथ भरोसेमंद साझेदारी बनानी होगी।
अगर यह संक्रमण दूरदर्शिता और न्यायसंगत तरीक़े से पूरा हुआ, तो यह “दिवाली तोहफ़ा” सचमुच भारत की अर्थव्यवस्था के लिए नई सुबह साबित हो सकता है। लेकिन अगर चूक हुई, तो इसे केवल एक राजनीतिक आतिशबाज़ी की तरह याद किया जाएगा—जो चमकी बहुत, पर रोशनी न दे सकी।