भारतीय राजनीति के लिए यह अब कोई रहस्य नहीं कि उपराष्ट्रपति चुनाव का परिणाम पहले से ही तय माना जा रहा है। संसद के दोनों सदनों में संख्याबल पर मज़बूत पकड़ रखने वाली भारतीय जनता पार्टी ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाकर विपक्ष की संभावनाओं को औपचारिकता भर में बदल दिया है। विपक्ष चाहे उम्मीदवार उतारे या न उतारे, जीत किसकी होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं।
लेकिन इस तयशुदा जीत से परे, बड़ा सवाल यह है कि क्या संवैधानिक पद आज भी अपने तटस्थ चरित्र को बचाए रख पाएंगे या वे केवल राजनीतिक निष्ठा की परीक्षा तक सीमित रह जाएँगे?
धाकड़ से राधाकृष्णन तक: पृष्ठभूमि और संदेश
जगदीप धनखड़ का अचानक इस्तीफ़ा कई सवाल छोड़ गया। वजह भले ही “स्वास्थ्य कारण” बताई गई, लेकिन सत्ता गलियारों में इसे विश्वास संकट के रूप में पढ़ा गया। यह स्पष्ट हो गया कि यदि सरकार को शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों से अपेक्षित “सामंजस्य” नहीं मिलता, तो टिके रहना कठिन हो जाता है।
इसके ठीक विपरीत, सी.पी. राधाकृष्णन आरएसएस से वैचारिक रूप से जुड़े, अनुशासित और संगठन के प्रति आजीवन वफ़ादार नेता माने जाते हैं। भाजपा का यह चुनाव एक संदेश भी है कि संवैधानिक पदों पर वही चेहरा टिकेगा, जो बिना शर्त निष्ठा निभा सके।
चुनावी गणित और राजनीतिक लाभ
चुनाव परिणाम पर संदेह नहीं, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक मंशा भी पढ़ी जानी चाहिए। राधाकृष्णन का संबंध तमिलनाडु की ज़मीन से है और उपराष्ट्रपति की उम्मीदवारी को दक्षिण भारत में भाजपा की पैठ बनाने की रणनीति से भी जोड़ा जा रहा है। 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले यह एक राजनीतिक निवेश है।
हालाँकि सवाल यह भी है कि क्या संवैधानिक पदों का इस्तेमाल केवल चुनावी समीकरण साधने के लिए होना चाहिए?
उपराष्ट्रपति की भूमिका: प्रतीक से अपेक्षा तक
उपराष्ट्रपति का पद औपचारिक दिख सकता है, लेकिन राज्यसभा की गरिमा बनाए रखने की ज़िम्मेदारी इन्हीं के हाथों में होती है। धनखड़ के कार्यकाल ने यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि यह भूमिका निष्पक्षता से न निभाई जाए तो सदन की साख पर असर पड़ता है। यही वह कसौटी है जिस पर राधाकृष्णन को परखा जाएगा।
उनकी प्रारंभिक प्रतिक्रियाएँ अत्यधिक कृतज्ञता और उत्साह से भरी रही हैं, लेकिन इस पद की गरिमा तटस्थता और संतुलन की माँग करती है। केवल आभार और निष्ठा दिखाना पर्याप्त नहीं, बल्कि सदन में हर दल को समान अवसर और सम्मान देना ही असली कसौटी है।
निष्कर्ष: सुनिश्चित जीत, अनिश्चित भविष्य
सी.पी. राधाकृष्णन की जीत लगभग पक्की है। पर यह जीत सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं के भविष्य से जुड़ी है। सवाल यह है कि क्या वे इस पद को सत्ता की छाया से ऊपर उठाकर उसके वास्तविक दायित्वों के अनुरूप निभा पाएंगे?
देश की निगाहें केवल इस पर नहीं होंगी कि उपराष्ट्रपति कौन बनते हैं, बल्कि इस पर होंगी कि वे संविधान की आत्मा के प्रति कितने जवाबदेह साबित होते हैं। जीत भले ही पूर्वनिर्धारित हो, लेकिन असली परीक्षा तो उनके शपथ लेने के बाद शुरू होगी।