तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय की ज़रूरत के बीच मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का श्रमिक कल्याण पर ध्यान केंद्रित करना समयानुकूल और आवश्यक पहल है। श्रम विभाग की गतिविधियों की उनकी समीक्षा ने यह स्पष्ट किया कि संगठित हो या असंगठित क्षेत्र, श्रमिक केवल औद्योगिक विकास की रीढ़ नहीं, बल्कि समावेशी विकास की नैतिक धुरी भी हैं।
योजनाएँ और ज़मीनी निष्पादन
संबल जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से लेकर ई-श्रम पोर्टल पर पंजीयन, और युवाओं के लिए युवा संगम जैसी पहलों तक, सरकार ने कई नवाचार किए हैं। मुख्यमंत्री ने इन योजनाओं की नियमित निगरानी और अधिकतम लाभार्थियों तक पहुँच सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है। यही वह बिंदु है जहाँ कल्याणकारी नीतियाँ केवल घोषणा नहीं, बल्कि निष्पादन के ज़रिए विश्वसनीय बनती हैं।
पारदर्शिता और तकनीक का सहारा
मुख्यमंत्री यादव की सोच में जो सबसे अहम पहलू उभरकर आया, वह है पारदर्शिता और तकनीक का उपयोग। ग्राम सभाओं के माध्यम से निगरानी और डिजिटल प्लेटफार्मों का समावेश पुराने, रिसाव-ग्रस्त कल्याण मॉडल से अलग दिशा दिखाता है। श्रमोदय विद्यालय जैसे प्रोजेक्ट्स के लिए पुलिस हाउसिंग कॉर्पोरेशन जैसी सक्षम संस्थाओं को जिम्मेदारी सौंपना भी दक्षता को प्राथमिकता देने की इच्छाशक्ति का प्रमाण है।
इसी क्रम में श्र्म स्टार रेटिंग लोगो का शुभारंभ उल्लेखनीय है। जैसे पर्यावरणीय रेटिंग कंपनियों को टिकाऊ विकास की ओर प्रेरित करती है, वैसे ही यह लोगो उद्योगों को श्रमिक कल्याण को केवल अनुपालन का बोझ नहीं, बल्कि प्रतिष्ठा की पूँजी के रूप में देखने के लिए प्रेरित कर सकता है।
सुधार और समग्र दृष्टिकोण
मुख्यमंत्री का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह था कि श्रम क्षेत्र को सुधारों की ज़रूरत है। यदि विकास को वास्तव में व्यापक बनाना है तो श्रमिक कल्याण केवल राहत तक सीमित न रहकर स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास को भी समेटना होगा। हाल ही में स्वीकृत श्री (SHREE) पहल—स्वास्थ्य, शिक्षा और उद्यम सहयोग—इसी समग्र दृष्टिकोण को सामने लाती है। तकनीक-आधारित श्रमिक सहकारी समितियों का विचार भी श्रमिकों को केवल मज़दूर नहीं, बल्कि उद्यम के साझेदार के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है।
लेकिन हर नीति की असली परीक्षा उसकी टिकाऊ क्षमता है। यदि योजनाएँ केवल नारों और प्रतीकों तक सीमित रह जाएँ तो वे सजावटी बनकर रह जाएँगी। वहीं, यदि उनका क्रियान्वयन मज़बूत, पारदर्शी और जवाबदेह ढाँचे में हो तो यह श्रमिकों के जीवन और भविष्य दोनों को बदल सकती हैं।
आगे की राह
श्रमिक कल्याण को नए युग की ज़रूरतों के अनुसार परिभाषित करना ही असली चुनौती है। न तो केवल संरक्षक राज्य का मॉडल पर्याप्त है, और न ही पूर्ण उदासीनता का। आज श्रमिकों को एक ऐसी व्यवस्था चाहिए जो सुरक्षा दे पर गरिमा भी बनाए रखे, सशक्त करे पर निर्भरता न बढ़ाए, अवसर दे पर भेदभाव न करे।
समत्व भवन में हुई यह समीक्षा महज़ विभागीय बैठक नहीं थी। यह उस सोच की झलक थी जिसमें विकास का रास्ता उन्हीं हाथों से होकर जाता है जो कारखाने खड़े करते हैं, सड़कों को आकार देते हैं और राष्ट्र की बुनियाद गढ़ते हैं। श्रमिकों को विकास का परिधीय पात्र नहीं, बल्कि मुख्य सहभागी बनाना ही भारत की प्रगति को टिकाऊ और न्यायपूर्ण बनाएगा।