Sunday, September 7, 2025

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नई तस्वीर, पुरानी नीति: भारत की विदेश रणनीति की असल दिशा

तियानजिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी और शी जिनपिंग-पुतिन के साथ खिंची तस्वीर ने दुनिया में हलचल मचा दी। वॉशिंगटन में इसे “भारत का झुकाव” कहकर देखा गया, जबकि बीजिंग और मॉस्को ने इसे अपने प्रभाव का प्रदर्शन बताया। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत की विदेश नीति किसी एक ध्रुव पर टिकने की नहीं, बल्कि संतुलन साधने की रही है।

तियानजिन का संकेत

एससीओ शिखर सम्मेलन में भारत ने चीन से संवाद की डोर फिर से थामने का संकेत दिया। उड़ानों की बहाली, कैलाश मानसरोवर यात्रा और व्यापारिक अवरोधों पर चर्चा, यह सब दर्शाता है कि दिल्ली रिश्तों को “पूरी तरह ठंडे” नहीं रखना चाहती। इतना ज़रूर है कि सीमा विवाद को सीधे शीर्ष स्तर पर रखने के बजाय अब विशेष प्रतिनिधियों के हाथ सौंपना एक बदलाव का संकेत है।

अमेरिका की बेचैनी

वॉशिंगटन में इस तस्वीर ने असहजता पैदा की। डोनाल्ड ट्रंप के तीखे बयान और उनके सलाहकारों की टिप्पणियाँ यह बताती हैं कि अमेरिका को भारत की “निकटता” से डर लगा। फिर भी, कुछ ही दिनों में वही अमेरिका भारत को “विशेष साझेदार” कहने लगा। असलियत यही है कि दोनों देश एक-दूसरे के बिना रणनीतिक संतुलन साध नहीं सकते, भले ही व्यापार और वीज़ा विवाद लगातार सिर उठाते रहें।

संतुलन की राजनीति

भारत न तो पश्चिम से दूरी बना रहा है, न ही चीन-रूस की छाँव में पूरी तरह खड़ा हो रहा है। यह वही पुरानी रणनीति है जिसे “रणनीतिक स्वायत्तता” कहा जाता है। ब्रिक्स और एससीओ भारत को महाद्वीपीय मंच देते हैं, वहीं क्वाड और हिंद-प्रशांत साझेदारी पश्चिमी ध्रुव से जोड़े रखते हैं। सस्ती रूसी तेल आपूर्ति और चीनी सप्लाई चेन भारत की ज़रूरत हैं, लेकिन सुरक्षा और भू-राजनीतिक अविश्वास भी कायम है।

असली कसौटी

तस्वीरें और शिखर सम्मेलन क्षणिक हैं। असली सवाल यह है कि क्या सीमा वार्ताएँ वास्तविक तनाव कम करेंगी? क्या अमेरिकी टैरिफ में ढील मिलेगी? क्या रूस से ऊर्जा सौदे भारत के लिए रणनीतिक ताक़त बने रहेंगे या पश्चिमी प्रतिबंधों का बोझ बढ़ाएँगे? यही वह धरातल है जहाँ भारत की विदेश नीति की असली परीक्षा होगी।

निष्कर्ष

भारत किसी नए ध्रुव की ओर नहीं मुड़ रहा। वह बस पुराने रास्ते पर नए हालात में चल रहा है। तस्वीरें चाहे जितनी प्रतीकात्मक हों, लेकिन न ग़लवान की स्मृति मिट सकती है और न ही अमेरिका के साथ दशकों की साझेदारी एक झटके में टूट सकती है। भारत की विदेश नीति आज भी वही है: अपनी शर्तों पर संतुलन साधना, ताकि एक खंडित विश्व व्यवस्था में अपने लिए अधिकतम गुंजाइश बचाई जा सके।

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