Tuesday, September 9, 2025

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प्रोत्साहन से कबाड़ प्रबंधन और लोकतंत्र की पुनर्प्राप्ति

मध्यप्रदेश कैबिनेट के दो अहम फैसले

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की अध्यक्षता में हुई हालिया मंत्रिमंडल बैठक में दो ऐसे निर्णय लिए गए जो राज्य की नीति-निर्माण क्षमता को नई दिशा देते हैं। ये फैसले केवल प्रशासनिक आदेश नहीं हैं, बल्कि पर्यावरणीय उत्तरदायित्व और लोकतांत्रिक सुदृढ़ीकरण की दोहरी आकांक्षा का संकेत हैं।

हरित परिवहन की ओर कदम

पहला निर्णय पुराने प्रदूषणकारी वाहनों को हटाकर नए वाहनों की खरीद पर प्रोत्साहन देने का है। बीएस-I और बीएस-II श्रेणी के वाहनों को अधिकृत स्क्रैपिंग केंद्र में कबाड़ करने पर वाहन मालिक को “सर्टिफिकेट ऑफ डिपॉजिट” मिलेगा, जिसके आधार पर नए वाहन पर मोटर टैक्स में 50 प्रतिशत छूट दी जाएगी। यह छूट केवल मध्यप्रदेश में पंजीकृत वाहनों पर ही मान्य होगी और प्रमाणपत्र का उपयोग तीन वर्षों तक किया जा सकेगा।

इस नीति का उद्देश्य दोहरा है—एक ओर पुराने, धुआँ छोड़ने वाले वाहनों को सड़कों से हटाना और दूसरी ओर राज्य में स्क्रैपिंग केंद्रों को बढ़ावा देना। आँकड़े बताते हैं कि राज्य में अभी तक लगभग 99,000 पुराने वाहन चल रहे हैं, जिनसे हवा की गुणवत्ता पर गंभीर असर पड़ता है। अनुमान है कि आधे कर की छूट से सरकार पर सौ करोड़ रुपये से अधिक का बोझ पड़ेगा, किंतु प्रदूषण की अनदेखी उससे कहीं महँगी पड़ सकती है।

रोचक तथ्य यह है कि 2024-25 में अब तक 1,563 वाहन मालिक इस योजना का लाभ उठा चुके हैं और 17 करोड़ रुपये से अधिक की छूट दी जा चुकी है। यह संकेत है कि लोग प्रोत्साहन मिलने पर बदलाव के लिए तैयार हैं। यदि इसे पारदर्शी और सख़्ती से लागू किया गया, तो मध्यप्रदेश अपने कस्बों और शहरों को पुराने इंजन की धुँआधार गिरफ्त से मुक्त कर सकता है।

नगरपालिकाओं में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की वापसी

दूसरा निर्णय, शायद उतना ही ऐतिहासिक है। मंत्रिमंडल ने नगर परिषदों और नगर पंचायत अध्यक्षों के प्रत्यक्ष चुनाव को बहाल करने के लिए अध्यादेश को मंजूरी दी है। 2022 में शुरू हुई अप्रत्यक्ष प्रणाली ने न केवल पारदर्शिता पर प्रश्नचिन्ह लगाए थे बल्कि स्थानीय नेतृत्व की वैधता भी कमज़ोर की थी।

1999 से 2014 तक चली प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति का अनुभव बताता है कि जनता द्वारा चुना गया नगर प्रमुख अधिक उत्तरदायी और निर्णायक होता है। हालाँकि आलोचकों का तर्क है कि प्रत्यक्ष चुनाव से महापौर जैसे पद “लोकल सत्ताधीश” बन सकते हैं, परंतु गुटबाज़ी और पर्दे के पीछे होने वाले सौदों से कहीं बेहतर है कि नेतृत्व जनता के स्पष्ट जनादेश से सशक्त हो।

दोहरी चुनौती, साझा समाधान

ये दोनों निर्णय मिलकर एक बड़ा संदेश देते हैं। पहला निर्णय नागरिकों की साँसों को स्वच्छ बनाने का प्रयास है, तो दूसरा उनके प्रतिनिधित्व को मज़बूत करने का। पर्यावरणीय सुधार और लोकतांत्रिक सुधार दोनों ही अपनी-अपनी चुनौतियों के साथ आते हैं—एक में वित्तीय बोझ है तो दूसरे में राजनीतिक टकराव। किंतु दूरगामी दृष्टि से देखें तो इनके लाभ कहीं बड़े हैं।

मध्यप्रदेश के सामने भी वही द्वंद्व है जो पूरे भारत के सामने है—विकास और स्थिरता का संतुलन, प्रतिनिधित्व और दक्षता का तालमेल। इस सप्ताह के फैसले इस बात का प्रमाण हैं कि राज्य सरकार इस संतुलन की तलाश में सक्रिय है और जोखिम उठाने को तैयार भी।

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