किसी भी गाँव के बच्चे के जीवन में एक शिक्षक की नियुक्ति किस कदर बदलाव ला सकती है, इसका ताज़ा उदाहरण छत्तीसगढ़ के कोटा विकासखंड के छोटे से गाँव शिवतरई में दिखता है। वर्षों से यह प्राथमिक स्कूल केवल एक शिक्षक पर टिका हुआ था, जहाँ पाँच कक्षाओं का बोझ अकेले प्रधानपाठक होरिलाल गंधर्व उठाते रहे। परिणामस्वरूप न तो पढ़ाई की निरंतरता रही और न ही बच्चों को आधारभूत शिक्षा मिल सकी।
उम्मीद की नई सुबह
मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के निर्देश पर जब शिक्षा विभाग ने शिक्षकों की तैनाती का पुनर्गठन किया और मनहर लाल ध्रुव को इस स्कूल में भेजा गया, तो माहौल ही बदल गया। अब कक्षाएँ नियमित चल रही हैं, बच्चे उत्साह से आते हैं और पढ़ाई को लेकर उनमें आत्मविश्वास झलकता है। एक माँ, प्रमिला ध्रुव, कहती हैं कि उनकी बेटी जो पहले स्कूल जाने से कतराती थी, अब रोज़ सुबह तैयार होकर जाती है और घर आकर भी खुशी से किताबें खोलती है।
भरोसे की वापसी
माता-पिता का यह बदलता हुआ नज़रिया अपने आप में बड़ा संकेत है। जब परिवारों को लगता है कि उनके बच्चों की शिक्षा सही हाथों में है, तो उनका विश्वास भी मज़बूत होता है। यही विश्वास ग्रामीण समाज में शिक्षा की असली नींव है।
बड़ा सबक
शिवतरई की कहानी केवल एक गाँव की कहानी नहीं है, यह पूरे ग्रामीण भारत की चुनौती की झलक है। स्टाफ की कमी, अनुपस्थित शिक्षक और अस्थायी इंतज़ाम ने अनगिनत बच्चों की शुरुआती शिक्षा को प्रभावित किया है। लेकिन यह भी साबित हुआ कि यदि सरकार थोड़ी सी संवेदनशीलता दिखाए और संसाधनों का सही उपयोग करे, तो परिणाम तुरंत दिखने लगते हैं।
आगे का रास्ता
हालाँकि, एक स्कूल में बदलाव पूरे राज्य के संकट का हल नहीं है। आवश्यकता है कि यह सुधार अपवाद नहीं बल्कि नियम बने। हर गाँव, हर स्कूल तक यह संदेश पहुँचे कि बच्चों की शिक्षा किसी भी हालत में अधूरी नहीं छोड़ी जाएगी। इसके लिए नियमित भर्ती, प्रशिक्षण और निगरानी उतनी ही ज़रूरी है जितना कि तैनाती का पुनर्गठन।
निष्कर्ष
शिवतरई ने यह साबित किया है कि शिक्षा महज़ आँकड़े नहीं है। यह राज्य, शिक्षक, बच्चा और माता-पिता के बीच एक जीवंत अनुबंध है। जब इस अनुबंध का सम्मान किया जाता है, तो शिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि बच्चों के जीवन को नया आत्मविश्वास और नई दिशा देती है।