आकांक्षाओं में निवेश या केवल प्रतीकात्मकता?
भोपाल के कुशाभाऊ ठाकरे सभागार में जब मुख्यमंत्री मोहन यादव ने मेधावी विद्यार्थियों को स्कूटर की चाबियाँ सौंपीं, तो यह केवल एक वाहन वितरण का दृश्य नहीं था। यह दृश्य था उस राज्य का, जो अपने युवाओं की आकांक्षाओं को “दो पहियों पर दौड़ते भविष्य” के रूप में देखना चाहता है। 7,800 से अधिक बारहवीं के टॉपर छात्रों के लिए यह स्कूटर पुरस्कार नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और अवसर का साधन भी है।
प्रतीक और वास्तविकता
पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश सरकार ने मेधा-प्रोत्साहन योजनाओं को पहचान दिलाई है: साइकिलें, लैपटॉप, वजीफे और अब स्कूटर। आँकड़े गवाही देते हैं कि यह कोई एक-दो साल की राजनीति नहीं, बल्कि लगातार चलती रणनीति है। पर सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ़ प्रतीक हैं या वास्तविक बदलाव के औज़ार भी?
फोटो खिंचवाते छात्र, मुख्यमंत्री का खुद स्कूटर पर बैठना—यह सब दृश्य निश्चित रूप से राजनीतिक संदेश को मजबूत करते हैं। लेकिन क्या ये पहिए बच्चों को सिर्फ़ विद्यालय से कोचिंग तक ले जाएंगे, या सचमुच सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी पर भी ऊपर चढ़ाएँगे?
ज़रूरी है संतुलन
सच्चाई यह है कि स्कूटर जैसी सुविधाएँ कई छात्रों, ख़ासकर बेटियों, को सुरक्षित यात्रा और व्यापक अवसर देती हैं। लेकिन जब तक इन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों, मज़बूत स्कूल ढाँचे और बेहतर स्वास्थ्य-सुविधाओं से जोड़ा नहीं जाएगा, तब तक ये योजनाएँ केवल उत्सव ही रह जाएँगी।
संवेदनशील हस्तक्षेप
राज्य सरकार का यह प्रयास भी सराहनीय है कि उसने किशोरियों के लिए 61 करोड़ से अधिक की राशि स्वच्छता वजीफ़े के रूप में दी। मासिक धर्म के कारण होने वाले ड्रॉपआउट को रोकने की यह कोशिश दिखाती है कि सरकार केवल “पुरस्कार देने वाली” नहीं, बल्कि गरिमा और स्वास्थ्य की “संरक्षक” भी बन सकती है।
आगे का रास्ता
योजना की सबसे बड़ी चुनौती है संरचनात्मक सुधार। स्कूटर और लैपटॉप छात्रों के मनोबल को तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन शिक्षा को बदलेंगे नहीं। इसके लिए “संदीपनि विद्यालय” जैसे मॉडल का विस्तार और प्रत्येक कक्षा में ठोस सुधार आवश्यक हैं।
निष्कर्ष
यह सच है कि स्कूटर योजनाएँ राजनीतिक पूँजी भी बनाती हैं और छात्रों में उत्साह भी। लेकिन यदि यह उत्साह शिक्षा की गहराई तक नहीं पहुँचा, तो यह ऊर्जा जल्द ही बिखर जाएगी। सच्ची मेधा-व्यवस्था वितरण-समारोहों से नहीं, बल्कि कक्षा-कक्षों और पुस्तकालयों से बनेगी।