रतलाम जिले के कुंडल गाँव से मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने जो घोषणा की, वह केवल परियोजनाओं के उद्घाटन का मंच नहीं था। यह मध्य प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नए सिरे से गढ़ने का खाका था। 2028 तक प्रदेश को “भारत की दूध राजधानी” बनाने का लक्ष्य रखकर उन्होंने खेती-किसानी को केवल खेत तक सीमित न रखकर, दुग्ध उत्पादन और उससे जुड़ी गतिविधियों को ग्रामीण समृद्धि का आधार बनाने की बात कही।
इस दृष्टि का केंद्र है—गाय के दूध को प्राथमिकता देकर उसे बेहतर मूल्य पर खरीदने और किसानों को सुनिश्चित भुगतान की गारंटी देना। डॉ. भीमराव अंबेडकर कामधेनु योजना और बड़े गौशालाओं के लिए सब्सिडी इसी दिशा की पहल है। यहां परंपरा और आधुनिक अर्थशास्त्र का मेल दिखता है—जहां सांस्कृतिक आस्था को आर्थिक अवसर में बदलने की कोशिश है। यदि यह पारदर्शिता और दक्षता से लागू हुआ तो किसानों की आय बढ़ सकती है, रोजगार के नए रास्ते खुल सकते हैं और मध्य प्रदेश भी गुजरात की तरह डेयरी शक्ति के रूप में उभर सकता है।
हालांकि मुख्यमंत्री का एजेंडा दूध तक सीमित नहीं रहा। 113 करोड़ रुपये की पेयजल योजना, मोकुंडवा सिंचाई परियोजना और रतलाम–खाचरोद फोरलेन सड़क जैसे एलान एक व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर पैकेज की तस्वीर पेश करते हैं। उसी दिन 246 करोड़ के विकास कार्यों का शुभारंभ यह संकेत देता है कि सरकार “तुरंत डिलीवरी” की राजनीति पर भी भरोसा कर रही है।
साथ ही, राज्य ने कल्याणकारी योजनाओं का नया चेहरा भी दिखाया है। किसानों को मुफ्त सौर पंप, हर घर के लिए आवास, पांच लाख तक का स्वास्थ्य बीमा और गरीबों के लिए एयर एम्बुलेंस जैसी घोषणाएं इस ओर इशारा करती हैं कि ग्रामीण जीवन के लगभग हर पहलू में सरकार अपनी भूमिका गहरी करना चाहती है। लाड़ली बहना योजना का मासिक लाभ पाँच साल में 1,500 रुपये से बढ़ाकर 3,000 रुपये करने की बात इस नीति को महिला सशक्तिकरण और राजनीतिक स्थिरता दोनों से जोड़ती है।
फिर भी, असली सवाल है—क्या प्रदेश की आर्थिक स्थिति इन सब वादों का बोझ उठा पाएगी? अधिक कीमत पर दूध खरीदने की गारंटी वित्तीय दृष्टि से कितनी टिकाऊ होगी? क्या लाखों सरकारी नौकरियों और निजी क्षेत्र में स्थानीय युवाओं को अवसर देने के वादे ब्यूरोक्रेसी की सुस्ती और राजस्व संकट में अटक नहीं जाएंगे?
यह कहना होगा कि डॉ. यादव ने प्रधानमंत्री के “आत्मनिर्भर भारत” मंत्र को अपने राजनीतिक नैरेटिव के साथ जोड़ने की कोशिश की है। रतलाम की पहचान—नमकीन, गहने और पारंपरिक व्यापार—को उन्होंने बड़े विकास चक्र की कड़ी के रूप में प्रस्तुत किया। भावनात्मक अपील (“एक ओर दुनिया, एक ओर रतलाम”) और ठोस योजनाओं का यह मेल उनके भाषण को नाटकीय भी बनाता है और नीतिगत भी।
लेकिन दूध की राजधानी बनना केवल गाय-भैंस के झुंड बढ़ा देने से संभव नहीं होगा। इसके लिए मजबूत कोल्ड चेन, भरोसेमंद सहकारी ढांचा, पशु-चिकित्सा सेवाएँ और अंतरराष्ट्रीय स्तर की गुणवत्ता जांच जरूरी होगी। इसी तरह सौर पंप और नदी जोड़ो जैसी योजनाओं को चुनावी आकर्षण से आगे बढ़ाकर टिकाऊ कृषि परिवर्तन के रूप में लागू करना होगा।
फिलहाल इतना साफ है कि मध्य प्रदेश की राजनीति “विकास को वादे” और “कल्याण को वैधता” में बदलकर एक नई कहानी लिखना चाहती है। असली चुनौती यही है कि मंच से किए गए वादे ज़मीन पर उतरें।
भारत के “दिल” कहे जाने वाले इस राज्य की धड़कन तभी तेज़ होगी, जब यह दूध और विकास दोनों में ईमानदार अमल दिखाए। क्योंकि वादे केवल तालियाँ बटोरते हैं, लेकिन दूध और पानी तभी मिलते हैं जब उन्हें निष्ठा से निचोड़ा और सींचा जाए।